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दशम शतक : उद्देशक - ५
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[५-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा में यावत् भोग्य दिव्य भोगों को भोगने में समर्थ नहीं है ?
[५-२ उ.] आर्यो! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की चमरचंचा नामक राजधानी की सुधर्मासभा में माणवक चैत्यस्तम्भ में, वज्रमय (हीरों के) गोल डिब्बों में जिन भगवन् की बहुत सी अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज तथा अन्य बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्कारयोग्य एवं सम्मानयोग्य हैं। वे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप एवं पर्युपासनीय हैं। इसलिए उन (जिन भगवान् की अस्थियों) के प्रणिधान (सान्निध्य) में वे (असुरेन्द्र, अपनी राजधानी की सुधर्मासभा में) यावत् भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं। इसीलिए हे आर्यो ! ऐसा कहा गया है कि असुरेन्द्र यावत् चमर, चमरचंचा राजधानी में यावत् दिव्य भोग भोगने में समर्थ नहीं है ।
[ ३ ] पभू णं अज्जो ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं तावत्तीसाए जाव अन्नेहि य बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि सद्धिं संपरिवुडे महयाऽहय जाव' भुंजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारिद्धीए, नो चेव णं मेहुणवत्तियं ।
[५-३ प्र.] परन्तु हे आर्यो ! वह असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर, अपनी चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठकर चौसठ हजार, सामानिक देवों, त्रायस्त्रिशक देवों और दूसरे बहुत से असुरकुमार देवों और देवियों से परिवृत होकर महानिनाद के साथ होने वाले नाट्य, गीत, वादित्र आदि शब्दों से होने वाले (राग-रंग रूप) दिव्य भोग्य भोगों का केवल परिवार को ऋद्धि से उपभोग करने में समर्थ है, किन्तु मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं ।
विवेचन — चमरेन्द्र सुधर्मासभा में मैथुननिमित्तक भोग भोगने में असमर्थ — प्रस्तुत पाँचवें सूत्र सुधर्मासभा में मैथुन-निमित्तक भोग भोगने की चमरेन्द्र की असमर्थता का सयुक्तिक प्रतिपादन किया गया
है।
कठिन शब्दों का भावार्थ — वइराम सु — वज्रमय ( हीरों के बने हुए), गोलवट्टसमुग्गएसु वृत्ताकार गोल डिब्बों में । जिणसकहाओ — जिन भगवान् की अस्थियाँ । अच्चणिज्जा - अर्चनीय । पज्जुवासणिज्जाओ– उपासना करने योग्य । पणिहाए- प्रणिधान — सान्निध्य में । मेहुणवत्तियं— मैथुन के निमित्त । परियारिद्धीए — परिवार की ऋद्धि से अर्थात् — अपने देवी परिवार की स्त्री शब्द- श्रवणरूपदर्शनादि परिचारणा रूप आदि से।
१. 'जाव' पद सूचित पाठ — 'नट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई ति । '
-अ. वू. व्याख्या. पत्र ५०६
२. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ४९८
३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५०५-५०६