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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
में श्री गौतमस्वामी के प्रति अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति जागी। उद्भूत प्रश्नों का समाधान पाने के लिए उनके कदम बढ़े और जहाँ गौतम स्वामी थे, वहाँ आकर उन्होंने वन्दना - नमस्कारपूर्वक सविनय कुछ प्रश्न पूछे। श्यामहस्ती अनगार के प्रश्न होने से इस उद्देशक का नाम भी श्यामहस्ती है ।
कठिन शब्दार्थ — पगतिभद्दए – प्रकृति से भद्र । जायसड्ढे – श्रद्धा उत्पन्न हुई। चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देव : अस्तित्व, कारण एवं सदैव स्थायित्व
५. [ १ ] अत्थि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा ? हंता, अत्थि ।
[५-१ प्र.] भगवन्! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [५-१ उ.] हां, (श्यामहस्ती ! चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव) हैं।
[२] से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चति — चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ?
एवं खलु सामहत्थी ! तेण कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी नामं नगरी होत्था । वण्णओ । तत्थ णं कायंदीए नयरीए तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाऽजीवा उवलद्धपुण्ण-पावा जाव विहरंति । तए णं ते तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासया पुव्विं उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता तओ पच्छा पासत्था पासत्थविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणंति, पा० २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेंति, झू० २ ती भत्ता असणाए छेदेंति, छे० २ तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना ।
[५-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असुरकुमारों के राजा असुरेन्द्र चमर के त्रास्त्रशक देव हैं ?
[५-२ उ.] हे श्यामहस्ती ! (असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव होने का ) कारण इस प्रकार है—उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नाम की नगरी थी। उसका वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिए। उस काकन्दी नगरी में (एक-दूसरे के) : सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक (श्रावक) रहते थे। वे धनाढ्य यावत् अपरिभूत थे । वे जीव- अजीव के ज्ञाता एवं पुण्य-पाप को हृदयंगम किए हुए विचरण (जीवन-यापन) करते थे। एक समय था, जब वे परस्पर सहायक गृहपति श्रमणोपासक पहले उग्र
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ४९३-४९४
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५०२