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पढमो उद्देसओ : 'दिस'
प्रथम उद्देशक : दिशाओं का स्वरूप उपोद्घात
२. रायगिहे जाव एवं वदासी
[२] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) यावत् इस प्रकार पूछादिशाओं का स्वरूप
३. किमियं भंते ! पाईणा ति पवुच्चति ? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव। [३ प्र.] भगवन् ! यह पूर्वदिशा क्या कहलाती है ? [३ उ.] गौतम! यह जीवरूप भी है और अजीवरूप भी है। ४. किमियं भंते ! पडीणा ति पवुच्चति ? गोयमा! एवं चेव। [४ प्र.] भगवन् ! यह पश्चिमदिशा क्या कहलाती है ? [४ उ.] गौतम! यह भी पूर्वदिशा के समान जानना चाहिए। ५. एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्डा, एवं अहा वि। [५] इसी प्रकार दक्षिणदिशा, उत्तरदिशा, ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा के विषय में भी जानना चाहिए।
विवेचन—दिशाएँ : जीव-अजीवरूप क्यों ? —प्रस्तुत तीन सूत्रों (३-४-५) में पूर्वादि छहों दिशाओं के स्वरूप के सम्बन्ध में गौतमस्वामी द्वारा पूछे जाने पर भगवान् ने उन्हें जीवरूप भी बताया है और अजीवरूप भी बताया है। पूर्व आदि सभी दिशाएँ जीवरूप इसलिए हैं कि उनमें एकेन्द्रिय आदि जीव रहे हुए हैं। अजीवरूप इसलिए हैं कि उनमें अजीव (धर्मास्तिकायादि) पदार्थ रहे हुए हैं। पूर्वदिशा का प्राची' और पश्चिमदिशा का 'प्रतीची' नाम भी प्रसिद्ध है।
___ दूसरे दार्शनिकों—विशेषतः नैयायिक-वैशेषिकों ने दिशा को द्रव्यरूप माना है, कई दर्शन परम्पराओं में दिशाओं को देवतारूप मान कर उनकी पूजा करने का विधान किया है। तथागत बुद्ध ने द्रव्यदिशाओं की
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९३