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नवम शतक : उद्देशक-३३
विवेचन—निष्क्रमणाभिषेक तथा दीक्षा के उपकरणादि की मांग-प्रस्तुत सू. ४९ से ५२ तक में जमालि के माता-पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा उसका निष्क्रमणाभिषेक कराया और फिर जमालि की इच्छानुसार रजोहरण, पात्र मंगवाए और नापित को बुलाया।
निष्क्रमणाभिषेक-दीक्षा के पूर्व प्रव्रजित होने वाले व्यक्ति का माता-पिता आदि द्वारा स्वर्ण आदि के कलशों से अभिषेक (मस्तक पर जलसिंचन करके स्नान) करना निष्क्रमणाभिषेक है।
कठिन शब्दों का विशेषार्थ—सिरिधराओं-श्रीघर-भण्डार से। कासवगं नापित को। भोमिज्जाणं-मिट्टी से बने हुए। सव्विड्डीए–समस्त छत्र आदि राजचिह्नरूप ऋद्धिपूर्वक। पयच्छामोविशेषरूप से क्या हैं?
कुत्रिकापण—कुत्रिक, अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों पृथ्वियों में संभवित वस्तु मिलने वाली देवाधिष्ठित दुकान।
५३. तए णं कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणो कोडुंबियपुरिसेहिं सदाविए समाणे हढे तुढे ण्हाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता करयल० जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजएणं वद्धावेइ, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी—संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज्ज।
[५३] फिर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के आदेश से कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा नाई को बुलाए जाने पर वह बहुत ही प्रसन्न और तुष्ट हुआ। उसने स्नानादि किया, यावत् शरीर को अलंकृत किया, फिर जहाँ क्षत्रियकुमार जमालि के पिता थे, वहाँ आया और उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया, फिर इस प्रकार कहा'हे देवानुप्रिय! मुझे करने योग्य कार्य का आदेश दीजिये।'
५४. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासी—तुमंणं देवाणुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवजे निक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि।
[५४] इस पर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता मै उस नापित से इस प्रकार कहा—हे देवानुप्रिय! क्षत्रियकुमार जमालि के निष्क्रमण के योग्य अग्रकेश (सिर के आगे-आगे के बाल) चार अंगुल छोड़ कर अत्यन्त यत्नपूर्वक काट तो।
५५. तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुढे करयल जाव एवं सामी ! तहत्ताणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्थपादे पक्खालेइ, सुरभिणा गंधोदएणं हत्थ-पादे पक्खालित्ता सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तीए मुहं बंधइ, मुहं बंधित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४६५-४६६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४७६