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________________ ५४० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचनमाता-पिता के द्वारा जमालि को गृहस्थाश्रम में रखने का पुनः उपाय—प्रस्तुत सूत्र में जमालि को यह समझाया गया है कि इतने उत्कृष्ट गुणों से युक्त शरीर और यौवन आदि का उपयोग करके बुढ़ापे में दीक्षित होना। कठिन शब्दों का भावार्थ—पविसिटुरूवं—प्र-अति विशिष्ट रूप। अभिजाय-महक्खमंअभिजात-(कुलीन) है और महती क्षमताओं से युक्त है। निरुवहय-उदत्त-लट्ठ-पंचिदियपहुं–निरूपहत, उदात्त, सुन्दर (लष्ट) एवं पंचेन्द्रिय-पटु है। पढमजोवणत्थं-उत्कृष्ट यौवन में स्थित है। अणुहोहिअनुभव कर (उपभोग कर)। णियगसरीररूव-सोभग्ग-जोवण्णगुणे-अपने शरीर के रूप, सौभाग्य, यौवन आदि गुणों का। ३८. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी—तह विणं तं अम्म! ताओ ! जं णं तुब्भे ममं एवं वदह इमं च णं ते जाया! सरीरगं० तं चेव जाव पव्वइहिसि! एवं खलु अम्म! ताओ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविहवाहिसयसनिकेतं अट्ठियकट्ठट्ठियं छिरा-हारुजालओणद्धसंपिणद्धं मट्टियभंडं वदुब्बलं असुइसंकिलिट्ठ अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयंजराकुणिम-जज्जरघरं व सडण-पडण-विद्धंसणधम्मं पुव्विं वा पुच्छा वा अवस्स-विप्पजहियव्वं भविस्सइ, से केस णं जाणाइ, अम्म ! ताओ! के पुब्बिं० ? तं चेव जाव पव्वइत्तए। [३८] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता! आपने मुझे जो यह कहा कि पुत्र! तेरा यह शरीर उत्तम रूप आदि गुणों से युक्त है, इत्यादि, यावत् हमारे कालगत होने पर तू प्रव्रजित होना। (किन्तु) हे माता-पिता! यह मानव-शरीर दुःखों का घर (आयतन) है, अनेक प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का निकेतन है, अस्थि (हड्डी) रूप काष्ठ पर खड़ा हुआ है, नाड़ियों और स्नायुओं के जाल से वेष्टित है, मिट्टी के बर्तन के समान दुर्बल (नाजुक) है। अशुचि (गंदगी) से संक्लिष्ट (बुरी तरह दूषित) है, इसको टिकाये (संस्थापित) रखने के लिए सदैव इसकी सम्भाल (व्यवस्था) रखनी पड़ती है, यह सड़े हुए शव के समान और जीर्ण घर के समान है, सड़ना, पड़ना और नष्ट होना, इसका स्वभाव है। इस शरीर को पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पड़ेगा, तब कौन जानता है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन ? इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्-इसलिए मैं चाहता हूँ कि आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं। विवेचन—जमालि द्वारा शरीर की अस्थिरता, दुःख एवं रोगादि की प्रचुरता का निरूपणप्रस्तुत ३८ वें सूत्र में जमालि द्वारा शरीर की अनित्यता, दुःख, व्याधि, रोग इत्यादि से सदैव ग्रस्तता आदि का वर्णन करके पुनः दीक्षा की आज्ञा-प्रदान करने के लिए माता-पिता से निवेदन है। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. १ पृ. ४६१ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४६९
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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