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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तसंयोगी ६१ भंग-पूर्वोक्त रीति से ६१ भंग समझने चाहिए। इस प्रकार संख्यात नैरयिक जीवआश्रयी-७+२३१+७३५+१०८५+८६१+३५७+६१ = ३३३७ कुल भंग होते हैं। असंख्यात नैरयिकों के प्रवेशनक-भंग
२७. असंखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा ७।
अहवा एगे रयण०, असंखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा। एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखिज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाण वि भाणियव्वो, नवरं असंखेज्जाओ अब्भहिओ भाणियव्वो, सेसं तं चेव जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमो आलावगो—अहवा असंखेज्जा रयण. असंखेज्जा सक्कर० जाव असंखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा।
[२७ प्र.] भगवन्! असंख्यात नैरयिक, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[२७ उ.] गांगेय! वे रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं, अथवा एक रत्नप्रभा में और असंख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं। ।
जिस प्रकार संख्यात नैरयिकों के द्विकसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी भंग कहे, उसी प्रकार असंख्यात के भी कहना चाहिए। परन्तु इतना विशेष है कि यहाँ 'असंख्यात' यह पद कहना चाहिए। (अर्थात्-बारहवाँ असंख्यात पद कहना चाहिए।) शेष सभी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए। यावत्-अन्तिम आलापक यह है —अथवा असंख्यात रत्नप्रभा में, असंख्यात शर्कराप्रभा में यावत् असंख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं।
विवेचन असंख्यात पद के एकसंयोगी भंग–सात होते हैं। द्विकसंयोगी से सप्तसंयोगी तक भंग असंख्यात के द्विकसंयोगी २५२, त्रिकंसोयगी ८०५, चतुष्कसंयोगी ११९०, पंचसंयोगी ९४५, षट्संयोगी ३९२ एवं सप्तसंयोगी ६७ भंग होते हैं, इस प्रकार असंख्यात नैरयिकों के नैरयिक-प्रवेशनक के कुल मिलाकर ३६५८ भंग होते हैं। उत्कृष्ट नैरयिक-प्रवेशनक-प्ररूपणा
२८. उक्कोसा णं भंते ! नेरइया नेरतियपवेसणएण. पुच्छा ? गंगेया ! सव्वे वि ताव रयणप्पभाए होज्जा ७।
अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य होज्जा।अहवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा, जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए य होज्जा। १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ४४०
(ख) भगवती. विवेचनयुक्त (पं. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १६६०-१६६१ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ४४०