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________________ २० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सादि-अनन्त होता है, न अनादि- सान्त होता है और न अनादि-अनन्त होता है। ७. [ १ ] जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिते, नो सादीए अपज्जवसिते, नो अादी सपज्जवसिते, नो अणादीए अपज्जवसिते तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साईए सपज्जवसिते, अत्थे० अणाईए सपज्जवसिए, अत्थे० अणाईए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिते । [७-१ प्र.] हे भगवन् ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलोपचय सादि - सान्त है, किन्तु सादि - अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त नहीं है, क्या उसी प्रकार जीवों का कर्मोपचय भी सादि - सान्त है, सादिअनन्त है, अनादि-सान्त है, अथवा अनादि-अनन्त है ? [७-१ उ.] गौतम ! कितने ही जीवों का कर्मोपचय सादि- सान्त है, कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है और कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है, किन्तु जीवों का कर्मोपचय सादि - अनन्त नहीं है । [ २ ] से केणट्ठेणं० ? · गोयमा ! इरियावहियाबंधयस्स कम्मोवचए साइए सप० । भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणादीए सपज्जवेसिते । अभवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाईए अपज्जवसिते । से तेणट्ठेणं० ।" [७-२ प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है ? [७-२ उ.] गौतम ! ईर्यापथिक-बन्धक का कर्मोपचय सादि - सान्त है, भवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, अभवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि - अनन्त है। इसी कारण से हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है। विवेचन—जीवों के कर्मोपचय की सादि - सान्तता का विचार - प्रस्तुत सूत्रद्वय में तृतीय द्वार के माध्यम से वस्त्र के पुद्गलोपचय की सादि - सान्तता आदि के विचारपूर्वक जीवों के कर्मोपचय की सादिसान्तता आदि का विचार प्रस्तुत किया गया है। जीवों का कर्मोपचय सादि - सान्त अनादि- सान्त एवं अनादि-अनन्त क्यों और कैसे ? मूलपाठ में ईर्यापथिकबंधकर्ता जीव की अपेक्षा से उक्त जीव का कर्मोपचय सादि- सान्त बताया गया है। ज्ञातव्य है कि ईर्यापथिकबंध क्या है ? और उसका बन्धकर्ता जीव कौन है ? कर्मबंध के मुख्य दो कारण हैंएक तो क्रोधादि कषाय और दूसरा - मन-वचन-काया की प्रवृत्ति । जिन जीवों का कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण नहीं हुआ है, उनको जो कर्मबंध होता है, वह सब साम्परायिक (काषायिक) कहलाता है, और जिन - १. यहाँ का पूरक पाठ इस प्रकार है - 'तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ अत्थे० जीवाणं कम्मोवचए सादीए [ जाव ] नो चेवणं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए । '
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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