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छठा शतक : उद्देशक - ३
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[ २ ] से केणट्ठेणं० ?
गोयमा ! से जहानामए वत्थस्स जल्लियस्स वा पंकितस्स वा मईलियस्स वा रइल्लियस्स वा आणुपुव्वी परिकम्मिजमाणस्स सुद्धेणं वारिणा धोव्वमाणस्स सव्वतो पोग्गला भिज्जंति जाव परिणमंति, से तेणट्ठेणं० ।
[३-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ?
[३-२ उ.] गौतम ! जैसे कोई मैला (जल्लित), पंकित (कीचड़ से सना ), मैलसहित अथवा धूल (रज) से भरा वस्त्र हो और उसे शुद्ध (साफ) करने का क्रमशः उपक्रम किया जाए, उसे पानी से धोया जाए तो उस पर लगे हुए मैले अशुभ पुद्गल सब ओर से भिन्न (अलग) होने लगते हैं, यावत् उसके पुद्गल शुभरूप में परिणत हो जाते हैं। (इसी तरह अल्पकर्म वाले जीव के विषय में भी पूर्वोक्त रूप से सब कथन करना चाहिए।)
इसी कारण से (हे गौतम! अल्पकर्म वाले जीव के लिए कहा गया है कि वह बारबार परिणत होता है ।)
यावत्
विवेचन—महाकर्मी और अल्पकर्मी जीव के पुद्गल - बंध-भेदादि का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपण – प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमश: महाकर्म आदि से युक्त जीव के सर्वतः सर्वदा सतत पुद्गलों के बन्ध, चय, उपचय एवं अशुभरूप में परिणमन का तथा अल्पकर्म आदि से युक्त जीव के पुद्गलों का भेद, छेद, विध्वंस आदि का तथा शुभरूप में परिणमन का दो वस्त्रों के दृष्टान्तपूर्वक निरूपण किया गया है।
निष्कर्ष एवं आशय – - जो जीव महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव और महावेदना से युक्त होता है, उस जीव के सभी ओर से सभी दिशाओं अथवा प्रदेशों से कर्मपुद्गल संकलनरूप से बंधते हैं, बन्धरूप से चय को प्राप्त होते हैं, कर्मपुद्गलों की रचना (निषेक) रूप से उपचय को प्राप्त होते हैं। अथवा कर्मपुद्गल बन्धनरूप में बंधते हैं, निधत्तरूप से उनका चय होता है और निकाचितरूप से उनका उपचय होता है।
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जैसे नया और नहीं पहना हुआ स्वच्छ वस्त्र भी बार-बार इस्तेमाल करने तथा विभिन्न अशुभ पुद्गलों के संयोग से मसौते जैसा मलिन और दुर्गन्धित हो जाता है, वैसे ही पूर्वोक्त प्रकार के दुष्कर्मपुद्गलों के संयोग आत्मा भी दुरूप के रूप में परिणत हो जाती है। दूसरी ओर - जो जीव अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्र्व और अल्पवेदना से युक्त होता है, उस जीव के कर्मपुद्गल सब ओर से भिन्न, छिन्न, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते जाते हैं और जैसे मलिन, पंकयुक्त, गंदा और धूल से भरा वस्त्र क्रमश: साफ करते जाने से, पानी से धोये जाने से उस पर संलग्न मलिन पुद्गल छूट जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, और अन्त में वस्त्र साफ, स्वच्छ, चमकीला हो जाता है, इसी प्रकार कर्मों के संयोग से मलिन आत्मा भी तपश्चरणादि द्वारा कर्मपुद्गलों के झड़ जाने, विध्वस्त हो जाने से सुखादिरूप में प्रशस्त बन जाती है।