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________________ ४४८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन–ग्यारह बोलों की प्राप्ति किसको और किसको नहीं?—केवलज्ञानी आदि दस में से किसी से शुद्ध धर्म-श्रवण किये बिना ही कौन व्यक्ति केवलि-प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ पाता, शुद्ध सम्यग्दर्शन का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान उपार्जित करता है ? इसके उत्तर में प्रस्तुत सूत्र (सं. १३) में उन-उन कर्मों का क्षयोपशम तथा क्षय करने वाले व्यक्ति को उस-उस बोल की प्राप्ति बताई गई है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति के उन-उन आवारककर्मों का क्षयोपशम या क्षय नहीं होता, वह उस-उस बोल की प्राप्ति से वंचित रहता है। केवली आदि से बिना सुने केवलज्ञानप्राप्ति वाले को विभंगज्ञान एवं क्रमशः अवधिज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया १४. तस्स णं छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगतिपयणुकोह-माणमाया-लोभयाए मिउमद्दवसंपन्नयाए अल्लीणताए भद्दताए विणीतताए अण्णया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं,लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणंखओवसमेणं ईहापोह-मग्गण-गवसेणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पनेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेन्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइंजोयणसहस्साइं जाणइ पासइ, से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुव्वामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, सम्मत्त पडिवज्जित्ता समणधम्मं रोएति, समणधम्मं रोएत्ता चरित्तं पडिवज्जइ, चरित्तं पडिवज्जित्ता लिंगं पडिवज्जइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं, परिहायमाणेहिं, सम्मइंसणपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं परिवड्डमाणेहिं से विब्भंगे अनाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ। [१४] निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) का तपः कर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए उस (बिना धर्मश्रवण किए केवलज्ञान तक प्राप्त करने वाले) जीव की प्रकृति-भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और लोभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है। वह पाषण्डस्थ, सारम्भी (आरम्भयुक्त), सपरिग्रह (परिग्रही) और संक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुई जीवों को भी जानता है। (तत्पश्चात्) वह (विभंगज्ञानी) सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सम्यक्त्व प्राप्त करके श्रमणधर्म पर रुचि करता है, श्रमणधर्म पर रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है। चारित्र अंगीकार करके लिंग (साधुवेश) स्वीकार करता है। तब उस (भूतपूर्व विभंगज्ञानी) के मिथ्यात्व के पर्याय
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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