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नवम शतक : उद्देशक-३-३०
४३७ के असंख्यावें भाग होती है। छह मास आयुष्य शेष रहने पर वे एक साथ पुत्र-पुत्रीयुगल को जन्म देते हैं। ८१ दिन तक उनका पालन-पोषण करते हैं। तत्पश्चात् मर कर वे देवगति में उत्पन्न होते हैं। इसीलिए कहा गया है—'देवलोगपरिग्गहा' अर्थात् वे देवगतिगामी होते हैं।
__ वे अन्तर्वीप कहाँ ?–जीवाभिगमसूत्र के अनुसार—जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और हैमवत की सीमा बांधने वाला चुल्ल हिमवान पर्वत है। वह पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवणसमुद्र को स्पर्श करता है। इसी पर्वत के पूर्वी और पश्चिमी किनारे से लवणसमुद्र में, चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में तीन-तीन सौ योजन आगे जाने पर एकोरुक आदि एक-एक करके चार अन्तर्वीप आते हैं। ये द्वीप गोल हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई तीन-तीन सौ योजन की है तथा प्रत्येक की परिधि ९४९ योजन से कुछ कम है। इन द्वीपों से आगे ४००-४०० योजन लवणसमुद्र में जाने पर चार-चार सौ योजन लम्बे-चौड़े हयकर्ण आदि पांचवाँ, छठा, सातवाँ और आठवाँ ये चार द्वीप आते हैं। ये भी गोल हैं। इनकी परिधि १२६५ योजन से कुछ कम है।
इसी प्रकार इन से आगे क्रमश: पांच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ एवं नौ सौ योजन जाने पर क्रमशः ४-४ द्वीप आते हैं, जिनके नाम पहले बता चुके हैं। इन चार-चार अन्तर्वीपों की लम्बाई-चौड़ाई भी क्रमशः पांच सौ से लेकर नौ सौ योजन तक जाननी चाहिए। ये सभी गोल हैं। इनकी परिधि तीन गुनी से कुछ अधिक
इसी प्रकार चुल्ल हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में ये २८ अन्तर्वीप हैं।
छप्पन अन्तीप-जिस प्रकार चुल्ल हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में २८ अन्तर्वीप कहे गए हैं, इसी प्रकार शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में भी २८ अन्तर्वीप हैं, जिनका वर्णन इसी शास्त्र के १० वें उद्देशक के ७ वें से लेकर ३४ वें उद्देशक तक २८ उद्देशकों में किया गया है। उन अन्तर्वीपों के नाम भी इन्हीं के समान है।
कठिन शब्दों के अर्थ–दाहिणिल्लाणं-दक्षिण दिशा के। चरिमंताओ अन्तिम किनारे से। उत्तर-पुरथिमेणं-ईशानकोण- उत्तरपूर्व दिशा से। ओगाहित्ता–अवगाहन करने (आगे जाने) पर। एक्कूणवण्णे—उनचास। किंचिविसेसूणे-कुछ कम। परिक्खेवेणं-परिधि (घेरे) से युक्त। सव्वओ. समंता–चारों ओर । संपरिक्खित्ते–परिवेष्टित, घिरा हुआ। सएणं-अपने
॥ नवम शतक : तीसरे से तीसवें उद्देशक तक समाप्त॥
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४२९
(ख) विहायपण्णत्तिसुत्तं भा. १, पृ. ४०८ २. (क) जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति ३, उ. १, पृ. १४४ से १५६ तक
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४२९ ३. भगवती. शतक १०, उ.७ से ३४ तक मूलपाठ ४. (क) भगवती. (पं. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १५७७
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४२९