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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र __ [६१-२ प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सिद्धजीव पुद्गली नहीं किन्तु पुद्गल है ? - [६१-२ उ.] गौतम! जीव की अपेक्षा सिद्धजीव पुद्गल हैं , (किन्तु उनके इन्द्रियां न होने से वे पुद्गली नहीं हैं,) इस कारण मैं कहता हूँ कि सिद्धजीव पुद्गली नहीं, किन्तु पुद्गल हैं।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है', यों कह कर श्री गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन—संसारी एवं सिद्ध जीव के पुद्गली तथा पुद्गल होने का विचार—प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमशः जीव, चतुर्विंशति दण्डकवर्ती जीव एवं सिद्ध भगवान् के पुद्गली या पुद्गल होने के सम्बन्ध में सापेक्ष विचार किया गया है।
पुद्गली एवं पुद्गल की व्याख्या–प्रस्तुत प्रकरण में पुद्गली उसे कहते हैं जिसके श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय आदि पुद्गल हों, जैसे-घट, पट, दण्ड, छत्र आदि के संयोग से पुरुष को घटी, पटी, दण्डी एवं छत्री कहा जाता है, वैसे ही इन्द्रियोंरूपी पुद्गलों के संयोग से औधिक जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों को पुद्गली कहा गया है। सिद्ध जीवों के इन्द्रियरूपी पुद्गल नहीं होते, इसलिए वे पुद्गली नहीं कहलाते। जीव को यहाँ जो पुद्गल कहा गया है, वह जीव की संज्ञा मात्र है। यहाँ पुद्गल शब्द से रूपी अजीव द्रव्य ऐसा अर्थ नहीं समझना चाहिए। वृत्तिकार ने जीव के लिए पुद्गल शब्द को संज्ञावाची बताया है।
॥ अष्टम शतक : दशम उद्देशक समाप्त॥
॥ समत्तं अट्ठमं सयं॥ ॥ अष्टम शतक सम्पूर्ण॥
. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्रांक ४२४