SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ४१९ परिच्छेदों) से युक्त होता है तथा उनसे आवेष्टित-परिवेष्टित (अर्थात् गाढ़रूप से— चारों ओर से लिपटा हुआ— बद्ध) होता है। आवेष्टित-रिवेष्टित के विषय में विकल्प- औधिक (सामान्य) जीव-सूत्र में कदाचित् ज्ञाना - वरणीयकर्म के आटि भाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित न होने की जो बात कही गई है, वह केवली की अपेक्षा से कही गई है, क्योंकि उनके ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय हो चुका है। इसी प्रकार केवलियों के दर्शनावरणीय, मोहनोय और अन्तराय कर्म का भी क्षय हो चुका है, अत: इन घातिकर्मों द्वारा केवलज्ञानियों की आत्मा को ये कर्म आवेष्टित-परिवेष्टित नहीं करते। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, ये चारों कर्म अघातिक हैं, अत: इनके विषय में मनुष्यपद में कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि ये चारों जैसे छद्मस्थों के होते हैं, वैसे केवलियों के भी होते हैं। सिद्ध भगवान् में नहीं होते, इसलिए जीव-पद में इस विषयक भजना है, किन्तु मनुष्यपद में नहीं, क्योंकि केवली भी मनुष्यगति और मनुष्यायु का उदय होने से मनुष्य ही हैं।' आठ कर्मों के परस्पर सहभाव की वक्तव्यता ४२. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं, जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? गोयमा ! जस्सणं नाणावरणिज्जं तस्स दंसणावरणिज्जं नियमा अत्थि, जस्सणंदरिसणावरणिज्जं तस्स वि नाणावरणिज्जं नियमा अत्थि। [४२ प्र.] भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, उसके क्या दर्शनावरणीय कर्म भी है और जिस जीव के दर्शनावरणीयकर्म है, उसके ज्ञानावरणीयकर्म भी है ? [४२ उ.] गौतम! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, उसके नियमत: दर्शनावरणीयकर्म है और जिस जीव के दर्शनावरणीयकर्म है, उसके नियमतः ज्ञानावरणीयकर्म भी है। ४३. जस्स णं भंते ! णाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं, जस्स वेयणिज्जं तस्स णाणावरणिज्ज ? गोयमा! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियमा अत्थि, जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स णाणावरणिज्जं सिय अत्थि, सिय नत्थि। [४३ प्र.] भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म है और जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीयकर्म भी है ? [४३ उ.] गौतम! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, उसके नियमत: वेदनीयकर्म है, किन्तु जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके ज्ञानावरणीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता है। ४४. जस्स ए भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं, जस्स मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? १. भगवतीसूत्र. अ. 'त्ति, पत्रांक ४२२
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy