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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ३-एक व्यक्ति शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है। ४-एक व्यक्ति न शीलसम्पन्न है और न श्रुतसम्पन्न है।
(१) इनमें से जो प्रथम प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान् है, परन्तु श्रुतवान् नहीं। वह (पापादि से) उपरत (निवृत्त) है, किन्तु धर्म को विशेषरूप से नहीं जानता। हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने देश-आराधक कहा
(२) इनमें से जो दूसरा पुरुष है, वह पुरुष शीलवान् नहीं, परन्तु श्रुतवान् है । वह (पापादि से) अनुपरत (अनिवृत्त) है, परन्तु धर्म को विशेषरूप से जानता है । हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने देश-विराधक कहा है।
(३) इनमें से जो तृतीय पुरुष है, वह पुरुष शीलवान् भी है और श्रुतवान् भी है। वह (पापादि से) उपरत है और धर्म का भी विज्ञाता है। हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने सर्व-आराधक कहा है।
(४) इनमें से जो चौथा पुरुष है, वह न तो शीलवान् है और न श्रुतवान् है। वह (पापादि से) अनुपरत है, धर्म का भी विज्ञाता नहीं है । हे गौतम! इस पुरुष को मैंने सर्व-विराधक कहा है।
विवेचनश्रुत और शील की आराधना एवं विराधना की दृष्टि से भगवान् द्वारा अन्यतीर्थिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तप्ररूपण-प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में अन्यतीर्थिकों की श्रुत-शील सम्बन्धी एकान्त मान्यता का निराकरण करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित श्रुत-शील की आराधना विराधना सम्बन्धी चतुर्भगी रूप स्वसिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है।
अन्यतीर्थिकों का श्रुत—शीलसम्बन्धी मत मिथ्या क्यों?—(१) कुछ अन्यतीर्थिक यों मानते हैं कि शील अर्थात् क्रियामात्र ही श्रेयस्कर है, श्रुत अर्थात्-ज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि वह आकाशवत् निश्चेष्ट है। वे कहते हैं-पुरुष के लिए क्रिया ही फलदायिनी है, ज्ञान फलदायक नहीं है। खाद्यपदार्थों के उपयोग के ज्ञान मात्र से ही कोई सुखी नहीं होता। (२) कुछ अन्यतीर्थिकों का कहना है कि ज्ञान (श्रुत) ही श्रेयस्कर है। ज्ञान से ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है। क्रिया से नहीं। ज्ञानरहित क्रियावान् पुरुष को अभीष्ट फलसिद्धि के दर्शन नहीं होते। जैसा कि वे कहते हैं—पुरुषों के लिए ज्ञान ही फलदायक है, क्रिया फलदायिनी नहीं होती, क्योंकि मिथ्याज्ञानपूर्वक क्रिया करने वाले को अनिष्टफल की ही प्राप्ति होती है। (३) कितने ही अन्यतीर्थिक परस्पर निरपेक्ष श्रुत और शील को श्रेयस्कर मानते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान, क्रियारहित भी फलदायक है, क्योंकि क्रिया उसमें गौणरूप से रहती है, अथवा क्रिया, ज्ञानरहित हो तो भी फलदायिनी है, क्योंकि उसमें ज्ञान गौणरूप से रहता है। इन दोनों में से कोई भी एक, पुरुष की पवित्रता का कारण है। उनका. आशय यह है कि मुख्य-वृत्ति से शील श्रेयस्कर है, किन्तु श्रुत भी उसका उपकारी होने से गौणवृत्ति से श्रेयस्कर है। अथवा श्रुत मुख्यवृत्ति से और शील गौणवृत्ति से श्रेयस्कर है। प्रथम दोनों मत एकान्त होने से मिथ्या हैं और तीसरे मत में मुख्य-गौणवृत्ति का आश्रय ले कर जो प्रतिपादन किया गया है, वह भी युक्तिसंगत
और सिद्धान्तसम्मत नहीं है, क्योंकि श्रुत और शील दोनों पृथक्-पृथक् या गौण-मुख्य न रह कर समुदित रूप में साथ-साथ रहने पर ही मोक्षफलदायक होते हैं। इस सम्बन्ध में दोनों पहियों के एक साथ जुड़ने पर ही रथ