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________________ अष्टम शतक : उद्देशक - ९ ३७३ [४३ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरबंध का अन्तर कितने काल का है ? [४३ उ.] गौतम! इसके सर्वबंध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय का कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए। देशबंध का अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त का है । ४४. जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चउरिंदियाणं वाउक्काइयवज्जाणं, नवरं सव्वबंधंतरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायव्वा । वाउक्काइयाणं सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साइं समयाहियाइं । देसबंधंतरं जहन्त्रेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । [४४] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का शरीरबंधान्तर कहा गया है, उसी प्रकार वायुकायिक जीवों को छोड़ कर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों का शरीरबंधान्तर कहना चाहिए, किन्तु विशेषत: उत्कृष्ट सर्वबंधान्तर जिस जीव की जितनी (आयुष्य) स्थिति हो, उससे एक समय अधिक कहना चाहिए। (अर्थात् —— सर्वबंध का अन्तर समयाधिक आयुष्यस्थिति -प्रमाण जानना चाहिए।) वायुकायिक जीवों के सर्वबंध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण और उत्कृष्टतः समयाधिक तीन हजार वर्ष का है। इनके देशबंध का अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है । ४५. पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालिय० पुच्छा । सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुत्रकोडी समयाहिया, देशबंधंतरं जहा एगिंदियाणं तहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं । [४५ प्र.] भगवन्! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक - औदारिकशरीरबंध का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? [४५ उ.] गौतम! इसके सर्वबंध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण है और उत्कृष्टतः समयाधिक पूर्वकोटि का है। देशबंध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों का कहा गया, ' प्रकार सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का कहना चाहिए। उसी ४६. एवं मणुस्साणं वि निरवसेसं भाणियव जाव उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । [४६] इसी प्रकार मनुष्यों के शरीरबंधान्तर के विषय में भी पूर्ववत् 'उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त का है' यहां तक सारा कथन करना चाहिए। ४७. जीवस्स णं भंते ! एगिंदियत्ते णोएगिंदियत्ते पुणरवि एगिंदियत्ते एगिंदियओरालिय सरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमब्भहियाई, देसबंधंतरं जहन्त्रेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमब्भहियाई ।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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