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पंचमो उद्देसओ : 'आजीव'
. पंचम उद्देशक : 'आजीव' सामायिकादि साधना में उपविष्ट श्रावक का सामान या स्त्री आदि परकीय हो जाने पर भी उसके द्वारा स्वममत्ववश अन्वेषण
१. रायगिहे जाव एवं वदासी
[१ उद्देशक का उपोद्घात] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने (श्रमण भगवन् महावीर से) इस प्रकार पूछा
२. आजीविया णं भंते ! थेरे भगवंते एवं वदासी
समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केई भंडे अवहरेज्जा, से णं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणे किं सभंडं अणुगवेसइ ? परायगं भंडं अणुगवेसइ ?
गोयमा ! सभंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ।
[२ प्र.] भगवन् ! आजीविकों (गोशालक के शिष्यों) ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा कि 'सामयिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए किसी श्रावक के भाण्ड-वस्त्र आदि सामान का कोई अपहरण कर ले जाए, (और सामायिक पूर्ण होने पर उसे पार कर) वह उस भाण्ड-वस्त्रादि सामान का अन्वेषण करे तो क्या वह (श्रावक) अपने सामान का अन्वेषण करता है या पराये (दूसरों के) सामान का अन्वेषण करता है ? __[२ उ.] गौतम ! वह (श्रावक) अपने ही सामान (भाण्ड) का अन्वेषण करता है, पराये सामान का अन्वेषण नहीं करता।
३. [१] तस्स णं भंते ! तेहिं सीलव्वत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवति?
हंता भवति।
[३-१ प्र.] भगवन् ! उन शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास को स्वीकार किये हुए श्रावक का वह अपहृत भाण्ड (सामान) उसके लिए तो अभाण्ड हो जाता है ? (अर्थात् सामायिक आदि की साधनावस्था में वह सामान उसका अपना रह जाता है क्या ?)
[३-१ उ.] हाँ, गौतम ! (शीलव्रतादि के साधनाकाल में) वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड ही जाता है।
[२] से केणं खाइ णं अटेणं भंते ! एवं वुच्चत्ति 'सभंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसई' ?