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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१ २३१ एगिदिय जाव परिणते? ___ गोयमा ! वाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए, नो अवाउक्काइय जाव परिणते। एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउव्वियसरीरं भणियंतहा इह वि भाणियव्वं जाव पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपजत्तसव्वट्ठसिद्ध जाव कायप्पयोगपरिणए वा।३।। [६७ प्र.] भगवन् ! यदि वह एक द्रव्य एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, तो क्या वह वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, अथवा अवायुकायिक (वायुकायिक जीवों के अतिरिक्त) एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है ? [६७ उ.] गौतम ! वह एक द्रव्य वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, किन्तु अवायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत नहीं होता। (क्योंकि वायुकाय के सिवाय अन्य किसी एकेन्द्रिय में वैक्रियशरीर नहीं होता।) इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के अवगाहन संस्थान' नामक इक्कीसवें पद में वैक्रियशरीर (कायप्रयोगपरिणत) के विषय में जैसा कहा है, (उसी के अनुसार) यहाँ भी पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होता है, अथवा वह अपर्याप्तक-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेवपंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है पर्यन्त कहना चाहिए। ६८.जदिवेउब्वियमीससरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिंदियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए वा जाव पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ? एवं जहा वेउव्वियं तहा मीसगं पि, नवरं देव-नेरइयाणं अपजत्ताणं, सेसाणं पजत्तगाणं तहेव, जाव नो पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो जाव प०,अपजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियदेवपंचिंदियवेउव्वियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए।४! [६८ प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य वैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, तो क्या वह एकेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-वैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता [६८ उ.] गौतम ! जिस प्रकार वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत के विषय में भी कहना चाहिए। परन्तु इतना विशेष है कि वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग देवों और नैरयिकों के अपर्याप्तक के विषय में कहना चाहिए। शेष सभी पर्याप्त जीवों के विषय में कहना चाहिए, यावत् पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत नहीं होता, किन्तु अपर्याप्त-सर्वार्थसिद्धअनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है; (यहाँ तक कहना चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र पद २१-अवगाहनासंस्थापद पृ. ३२९ से ३४९ तक, सू. १४७४-१५६५ (म. वि.)
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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