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अष्टम शतक : उद्देशक - १
[ २ ] सम्मुच्छिमचउप्पदथलचर० एवं चेव । एवं गब्भवक्कंतिया य ।
[२१-२] इसी प्रकार सम्मूर्च्छिम-चतुष्पदस्थलचर सम्बन्धी प्रयोग- परिणत पुद्गलों के प्रकार तथा गर्भज-चतुष्पदस्थलचर सम्बन्धी प्रयोग- परिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में जानना चाहिए। [३] एवं जाव सम्मुच्छिमखहयर० गब्भवक्कंतिया य एक्केक्के पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य भाणियव्वा ।
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[२१-३] इसी प्रकार यावत् सम्मूर्च्छिम खेचर और गर्भज खेचर से सम्बन्धित प्रयोगपरिणत पुद्गलों के प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो भेद कहने चाहिए।
२२. [ १ ] समुच्छिममणुस्सपंचिंदिय० पुच्छा ।
गोयमा ! एगविहा पन्नत्ता - अपज्जत्तगा चेव ।
[२२-१ प्र.] भगवन् ! सम्मूर्च्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए
हैं ?
[२२-१ उ.] गौतम ! वे एक प्रकार के कहे गए हैं, यथा— अपर्याप्तक- सम्मूर्च्छिम मनुष्य-पंचेन्द्रियप्रयोग- परिणत पुद्गल ।
[२] गब्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदिय० पुच्छा।
गोमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा — पज्जत्तगगब्भवक्कंतिया वि, अपज्जत्तगगब्भवक्कंतिया
वि ।
[२२-२ प्र.] भगवन् ! गर्भज- मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं? [२२-२ उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार — पर्याप्तक- गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रियप्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक- गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत पुद्गल ।
२३. [ १ ] असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा ।
गोमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—पज्जत्तगअसुरकुमार० अपज्जत्तगअसुर० ।
[२३-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार - भवनवासीदेव-प्रयोग- परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं? [२३-१ उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा—- पर्याप्तक - असुरकुमार - भवनवासीदेवप्रयोग- परिणत- पुद्गल और अपर्याप्तक- असुरकुमार - भवनवासीदेव-प्रयोग- परिणत पुद्गल ।
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[ २ ] एवं जाव थणियकुमारा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा या ।
[२३-२] इसी तरह स्तनितकुमार - भवनवासी तक प्रयोग- परिणत पुद्गलों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद कहने चाहिए।