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सप्तम शतक : उद्देशक-७
१७३ _गोयमा ! जे णं नो पभू समुदस्स पारं गमित्तए, जे णं नो पभू समुदस्स पारगताइं रूवाइं पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जे णं नो पभू देवलोगगताइं रूवाइं पासित्तए एस णं गोयमा ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति। सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति०।
॥सत्तमसए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ [२८ प्र.] भगवन् ! समर्थ होते हुए भी जीव प्रकामनिकरण वेदना को किस प्रकार वेदते हैं ?
[२८ उ.] गौतम ! जो समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं है, जो समुद्र के पार रहे हुए रूपों को देखने में समर्थ नहीं है, जो देवलोक में जाने में समर्थ नहीं है और जो देवलोक में रहे हुए रूपों को देख नहीं सकते हैं गौतम ! वे समर्थ होते हुए भी प्रकामनिकरण वेदना को वेदते हैं।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन—असंज्ञी और समर्थ (संज्ञी) जीवों द्वारा अकाम निकरण एवं प्रकामनिकरणवेदन का सयुक्तिक निरूपण—प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. २४ से २८ तक) में असंज्ञी एवं समर्थ जीवों द्वारा अकामनिकरण वेदन का तथा समर्थ जीवों द्वारा प्रकामनिकरणवेदन का सयुक्तिक निरूपण किया गया है।
असंज्ञी और संज्ञी द्वारा अकाम-प्रकामनिकरण वेदन क्यों और कैसे? -असंज्ञी जीवों के मन न होने से वे इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति या विचारशक्ति के अभाव में सुख-दुःख रूप वेदना अकामनिकरण रूप में (अनिच्छा से, अज्ञानतापूर्वक) भोगते हैं। संज्ञी जीव समनस्क होने से देखने-जानने में अथवा ज्ञानशक्ति और इच्छाशक्ति में समर्थ होते हुए भी अनिच्छापूर्वक (अकामनिकरण) अज्ञानदशा में सुख-दुःखरूप वेदन करते हैं। जैसे—देखने की शक्ति होते भी अन्धकार में रहे हुए पदार्थों को दीपक के बिना मनुष्य नहीं देख सकता, इसी प्रकार आगे-पीछे, अगल-बगल, ऊपर-नीचे रहे हुए पदार्थों को देखने की शक्ति होते हुए भी मनुष्य उपयोग के बिना नहीं देख सकता; वैसे ही समर्थ जीव के विषय में समझना चाहिए। संज्ञी (समनस्क) जीवों में इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति होते हुए भी उसे प्रवृत्त करने में सामर्थ्य नहीं है, केवल उसकी तीव्र अभिलाषा है, इस कारण वे प्रकामनिकरण (तीव्र इच्छापूर्वक) वेदना वेदते हैं। जैसे—समुद्रपार जाने की, समुद्रपार रहे हुए रूपों को देखने की, देवलोक में जाने की तथा वहाँ के रूपों को देखने की शक्ति न होने से जीव तीव्र अभिलाषापूर्वक वेदना वेदते हैं, वैसे ही यहाँ समझना चाहिए।
निष्कर्ष-अंसज्ञी जीव इच्छा और ज्ञान की शक्ति के अभाव में अनिच्छा से अज्ञानपूर्वक सुख-दुःख वेदते हैं। संज्ञी जीव इच्छा और ज्ञानशक्ति से युक्त होते हुए भी उपयोग के बिना अनिच्छा से और अज्ञानपूर्वक सुख-दुःख वेदते हैं, और ज्ञान एवं इच्छाशक्ति से युक्त होते हुए भी प्राप्तिरूप सामर्थ्य के अभाव में मात्र तीव्र कामनापूर्वक वेदना वेदते हैं।
॥ सप्तम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त॥
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक ३१२
(ख) भगवती. (गुजराती अनुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड ३, पृ. २६