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सप्तम शतक : उद्देशक-७
१६९ भोगी जीव उनसे अनन्तगुणे हैं।
विवेचन—विविध पहलुओं से काम-भोग एवं कामी-भोगी के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा—प्रस्तुत अठारह सूत्रों (सू. २ से १९ तक) में विविध पहलुओं से काम, भोग, कामी-भोगी जीवों के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व से सम्बन्धित विद्धान्तसम्मत प्रश्नोत्तर प्रस्तुत हैं।
निष्कर्ष—जिनकी कामना अभिलाषा तो की जाती है किन्तु विशिष्ट शरीरस्पर्श के द्वारा भोगे न जाते हों, वे काम हैं, जैसे—मनोज्ञ शब्द, संस्थान तथा वर्ण काम हैं । रूपी का अर्थ है—जिनमें रूप या मूर्तता हो। इस दृष्टि से काम रूपी हैं, क्योंकि उनमें पुद्गलधर्मता होने से वे मूर्त हैं । समनस्क प्राणी के रूप की अपेक्षा से काम सचित्त हैं और शब्दद्रव्य की अपेक्षा तथा असंज्ञी जीवों के शरीर के रूप की अपेक्षा से अचित भी हैं। यह सचित्त और अचित्त शब्द विशिष्ट चेतना अथवा संज्ञित्व तथा विशिष्टचेतनाशून्यता अथवा असंज्ञित्व का बोधक है। जीवों के शरीर के रूपों की अपेक्षा से काम जीव हैं और शब्दों तथा चित्रित पुतली, चित्र आदि की अपेक्षा काम अजीव भी हैं। कामसेवन के कारणभूत होने से वे जीवों के ही होते हैं, अजीवों में काम का अभाव है। जो शरीर से भोगे जाएँ, वे गन्ध, रस और स्पर्श'भोग' कहलाते हैं। वे भोग पुद्गलधर्मी होने से मूर्त हैं, अत: रूपी हैं, अरूपी नहीं। किन्हीं संज्ञी जीवों के गन्धादिप्रधान शरीरों की अपेक्षा से भोग सचित्त हैं असंज्ञी जीवों के गन्धादिविशिष्ट शरीरों की अपेक्षा अचित्त भी हैं। जीवों के शरीर तथा अजीव द्रव्य विशिष्टगन्धादि की अपेक्षा भोग जीव भी हैं, अजीव भी।
चतुरिन्द्रिय और सभी पंचेन्द्रिय जीव काम-भोगी हैं, वे सबसे थोड़े हैं। उनसे नोकामी नोभोगी अर्थात् सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं और भोगी जीव-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव उनसे अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय के जीव अनन्त हैं। क्षीणभोगी छद्मस्थ, अधोऽवधिक, परमावधिक एवं केवली मनुष्यों में भोगित्व-प्ररूपणा
२०. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजित्तए, से नूणं भंते! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, से नूणं भंते ! एयमटुं एवं वयह ? ___ गोयमा ! णो इणढे समटे, पभू णं से उट्ठाणेणं वि कम्मेणं वि बलेणं वि वीरिएणं वि पुरिसक्कारपरक्कमेणं वि अनयराइं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिजरे महापजवसाणे भवति।
[२० प्र.] भगवन् ! ऐसा छद्मस्थ मनुष्य, जो किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होने वाला है, भगवन् ! वास्तव में वह क्षीणभोगी (अन्तिम समय में दुर्बल शरीर वाला होने से) उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम के द्वारा विपुल और भोगने योग्य भोगों को भोगता हुआ विहरण (जीवनयापन) करने में १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३१०-३११