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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र औधिक जीवों के विषय में कहा गया है, वैसे ही सारा कथन करना चाहिए।
विवेचन–समस्त जीवों के कर्कश-अकर्कश-वेदनीय कर्मबंध का हेतुपूर्वक निरूपणप्रस्तुत ८ सूत्रों (सू. १५ से २२ तक) में समुच्चय जीवों और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के कर्कशवेदनीय और अकर्कशवेदनीय कर्मबंध के सम्बंध में सहेतुक निरूपण किया गया है।
कर्कशवेदनीय और अकर्कशवेदनीय कर्मबंध कैसे,और कब?–जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म बंध जाते हैं, उनका पता तब लगता है, जब वे उदय में आते हैं, भोगने पड़ते हैं, क्योंकि कर्कशवेदनीय कर्म भोगते समय अत्यन्त दु:खरूप प्रतीत होते हैं। जैसे स्कन्दक आचार्य के शिष्यों ने पहले किसी भव में कर्कशवेदनीय कर्म बांधे थे। अकर्कशवेदनीय कर्म भोगने में सुखरूप प्रतीत होते हैं, जैसे कि भरत चक्री आदि ने बांधे थे। कर्कशवेदनीय को बांधने का कारण १८ पापस्थानक-सेवन और अकर्कशवेदनीय-कर्मबंध का कारण इन्हीं १८ पापस्थानों का त्याग है। नरकादि जीवों में प्राणातिपात आदि पापस्थानों से विरमण न होने से वे अकर्कशवेदनीय-कर्मबंध नहीं कर सकते। चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में साता-असाता वेदनीय कर्मबंध और उनके कारण
२३. अत्थि णं भंते ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता, अत्थि। [२३ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं ? [२३ उ.] हाँ, गौतम ! बंधते हैं। २४. कहं णं भंते ! जीवाणं सातावेदणिजा कम्मा कजंति ?
गोयमा ! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए, बहुणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिपण्णत्ताए अपिट्टणयाए अपरितावणयाए; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कजंति।
[२४ प्र.] भगवन् ! जीव सातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? । [२४ उ.] गौतम ! प्राणों पर अनुकम्पा करने से, भूतों पर अनुकम्पा करने से, जीवों के प्रति अनुकम्पा करने से और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से; तथा बहुत-से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक (दैन्य) उत्पन्न न करने से, (शरीर को सुखा देने वाली) चिन्ता (विषाद या खेद) उत्पन्न न करने से, विलाप एवं रुदन करा कर आसूं न बहवाने से, उनको न पीटने से, उन्हें परिताप न देने से (जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं।) हे गौतम ! इस प्रकार से जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं।
२५. एवं नेरतियाण वि। [२५ प्र.] इसी प्रकार नैरयिक जीवों के (भी सातावेदनीय कर्मबंध के) विषय में कहना चाहिए।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३०५