SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१ हो गए, उस को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। किन्तु जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ, (ये चारों) व्युच्छिन्न (अनुदित) नहीं हुए, उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती। सूत्र (आगम) के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है और उत्सूत्र प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है। उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाला अनगार, सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करता है। हे गौतम ! इस कारण से कहा गया है कि उसे साम्परायिकी क्रिया लगती विवेचन–उपयोगरहित गमनादि-प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण—प्रस्तुत १६वें सूत्र में उपयोगशून्य होकर गमनादि क्रिया करने वाले अनगार को ऐपिथिकी नहीं, साम्परायिकी क्रिया लगती है, इसका युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है। 'वोच्छिन्ना' शब्द का तात्पर्य मूलपाठ में जो 'वोच्छिन्ना' शब्द है, उसके अनुदित' और 'क्षीण' ये दोनों अर्थ युक्तिसंगत हैं, क्योंकि ऐर्यापथिकी क्रिया ११वें, १२वें गुणस्थान में पायी जाती है। और १२वें १३वें गुणस्थान में कषाय का सर्वथा क्षय हो जाता है। जबकि ११वें गुणस्थान में कषाय का क्षय नहीं होकर उसका उपशम होता है, अर्थात्-कषाय उदयावस्था में नहीं रहता। इस दृष्टि से वोच्छिन्ना' शब्द के यहाँ 'क्षीण और अनुदित' दोनों अर्थ लेने चाहिए। 'अहासुत्तं' और 'उस्सुत्तं' का तात्पर्यार्थ—'अहासुत्तं का सामान्य अर्थ है—'सूत्रानुसार', परन्तु यहाँ ऐर्यापथिक क्रिया की दृष्टि से विचार करते समय 'अहासुत्तं' का अर्थ होता—यथाख्यात चारित्र-पालन की विधि के सूत्रों (नियमों) के अनुसार क्योंकि ११वें से १३वें गुणस्थानवर्ती यथाख्यातचारित्री को ही ऐयापथिकी क्रिया लगती है। इसलिए यथाख्यातचारित्री अनगार ही 'अहासुत्तं' प्रवृत्ति करने वाले कहे जा सकते हैं । १०वें गुणस्थान तक के अनगार सूक्ष्मसम्परायी (सकषायी) होने के कारण अहासुत्तं (यथाख्यातक्षायिक चारित्रानुसार) प्रवृत्ति नहीं करते, इसलिए उन्हें क्षयोपशमजन्य चारित्र के अनुसार कषायभावयुक्त प्रवृत्ति करने के कारण साम्परायिक क्रिया लगती है। अत: यहाँ 'उत्सूत्र' का अर्थ श्रुतविरुद्ध प्रवृत्ति करना नहीं, अपितु, यथाख्यातचारित्र के अनुरूप प्रवृत्ति न करना होता है। अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त तथा क्षेत्रातिक्रान्तदि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ २७. अह भंते ! सइंगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुद्रुस्स पाणभोयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ? गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिजं असणं-पाणं-खाइम-साइमं पडिगाहित्ता मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने आहारं आहारेति एस णं गोयमा ! सइंगाले पाण-भोयणे। जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण-पाण-खाइम-साइमं पडिगाहित्ता महयाअप्पत्तियं १. भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भाग-३ पृ. १०९५ २. श्री भगवती उपक्रम, पृष्ठ ५९
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy