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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३] कहं णं भंते ! निरिंधणताए अकम्मस्स गती ?
गोयमा ! से जहानामए धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ढं वीससाए निव्वाघातेणं गती पवत्तति एवं खलु गोतमा ! ।
[१३-३ प्र.] भगवन् ! ईंधनरहित होने (निरिन्धनता) से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है?
[१३-३ उ.] गौतम ! जैसे ईंधन से छूटे (मुक्त) हुए धूएं की गति किसी प्रकार की रुकावट (व्याघात) न हो तो स्वाभाविक रूप से (विस्रसा) ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! कर्मरूप ईंधन से रहित होने से कर्मरहित जीव की गति (ऊपर की ओर) होती है।
[४] कहं णं भंते ! पुव्वप्पयोगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता ?
गोतमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाघातेणं गति पवत्तति एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए निरंगणयाए पुव्वपयोगेणं अकम्मस्स गति पण्णत्ता।
[१३-४ प्र.] भगवन् । पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ?
[१३-४ उ.] गौतम ! जैसे—धनुष से छूटे हुए बाण की गति बिना किसी रुकावट के लक्ष्याभिमुखी (निशान की ओर) होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है।
इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि नि:संगता से, नीरागता से यावत् पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की (ऊर्ध्व) गति होती है।
विवेचन—नि:संगतादि कारणों से कर्मरहित (मुक्त) जीव की (ऊर्ध्व) गति-प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. ११ से १३ तक) में असंगता आदि हेतुओं से दृष्टान्तपूर्वक कर्मरहित जीव की गति की प्ररूपणा की गई है। ___अकर्मजीव की गति के छह कारण—(१) निःसंगता—निर्लेपता। जैसे तुम्बे पर डाभ और कुश को लपेट कर मिट्टी के आठ गाढ़े लेप लगाने के कारण जल पर तैरने के स्वभाव वाला तुम्बा भी भारी होने से पानी के तले बैठ जाता है किन्तु मिट्टी के लेप हट जाने पर वह तुम्बा पानी के ऊपरी तल पर आ जाता है, वैसे ही आत्मा कर्मों के लेप से भारी हो जाने से नरकादि अधोगमन करता रहता है, किन्तु कर्मलेप से रहित हो जाने पर स्वत: ही ऊर्ध्वगति करता है।(२) नीरागता—मोहरहितता। मोह के कारण कर्मयुक्त जीव भारी होने से ऊर्ध्वगति नहीं कर पाता, मोह सर्वथा दूर होते ही वह कर्मरहित होकर ऊर्ध्वगति करता है।(३)गतिपरिणामजिस प्रकार तिर्यग्वहन स्वभाव वाले वायु के सम्बंध से रहित दीपशिखा स्वभाव से ऊपर की ओर गमन करती है, वैसे ही मुक्त (कर्मरहित) आत्मा भी नानागतिरूप विकार के कारणभूत कर्म का अभाव होने से ऊर्ध्वगति स्वभाव होने से ऊपर की ओर गति करता है। (४) बन्धछेद–जिस प्रकार बीजकोष के बन्धन के टूटने से एरण्ड आदि के बीज की ऊर्ध्वगति देखी जाती है, वैसे ही मनुष्यादि भव में बांधे रखने वाले गति-जाति नाम आदि समस्त कर्मों के बंध का छेद होने से मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति जानी जाती है। (५)निरिन्धनता-जैसे ईंधन से रहित होने से धुआँ स्वभावत: ऊपर की ओर गति करता है, वैसे ही कर्मरूप ईंधन से रहित होने से