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छठा शतक : उद्देशक-१०
१०३ परूवेमि-अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, आहच्च सातं। अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतसातं वेदणं वेदेति, आहच्च असायं वेयणं वेदेति। अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता वेमाताए वेयणं वेयंति, आहच्च सायमसायं।
[११-१ प्र.] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तदुःखरूप वेदना को वेदते (भोगते-अनुभव करते) हैं, तो भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता
[११-१ उ.] गौतम ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् साता (सुख) रूप वेदना भी वेदते हैं; कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तसाता (सुख) रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् असाता (दुःख) रूप वेदना भी वेदते हैं तथा कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व विमात्रा (विविध प्रकार) से वेदना वेदते हैं; (अर्थात्) कदाचित् सातारूप और कदाचित् असातारूप (वेदना वेदते हैं।)
[२] से केणठेणं०?
गोयमा ! नेरइया एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति, आहच्च सातं। भवणवति-वाणमंतर-जोइसवेमाणिया एगंतसातं वेदणं वेदेति, आहच्च असायं। पुढविक्काइया जाव मणुस्सा वेमाताए वेदणं वेदेति, आहच्च सातमसातं। से तेणढेणं०।।
[११-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कथन किया जाता है ?
[११-२ उ.] गौतम ! नैरयिक जीव, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् सातारूप वेदना भी वेदते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक एकान्तसाता (सुख) रूप वेदना वेदते हैं, किन्तु कदाचित् असातरूप वेदना भी वेदते हैं तथा पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्यों पर्यन्त विमात्रा से (विविध रूपों में) वेदना वेदते हैं (अर्थात्) कदाचित् सुख और कदाचित् दुःख वेदते हैं। इस कारण से हे गौतम! उपर्युक्त रूप से कहा गया है।
विवेचन—एकान्तदुःखवेदनरूप अन्यतीर्थिकमत-निराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदना-प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीर्थिकों की सब जीवों द्वारा एकान्तदुःखवेदन की मान्यता का खण्डन करते हुए अनेकान्तशैली से दुःखबहुल सुख, सुखबहुल दुःख एवं सुख-दुःखमिश्र के वेदन का निरूपण किया गया है।
समाधान का स्पष्टीकरण-नैरयिक जीव एकान्तदुःख वेदते हैं, किन्तु तीर्थंकर भगवान् के जन्मादि कल्याणकों के अवसर पर कदाचित् सुख भी वेदते हैं। देव एकान्तसुख वेदते हैं, किन्तु पारस्परिक आहनन (संघर्ष, ईर्ष्या, द्वेष आदि) में तथा प्रिय वस्तु के वियोगादि में असात वेदना भी वेदते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्यों तक के जीव किसी समय सुख और किसी समय दुःख, कभी सुख-दुःख मिश्रित वेदना वेदते
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २८६