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छठा शतक : उद्देशक-९ समर्थ है।)
__इसी प्रकार दो-दो विरुद्ध गुणों अर्थात् गुरु और लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, वर्ण आदि को . वह सर्वत्र परिणमाता है। परिणमाता है' इस क्रिया के साथ यहाँ इस प्रकार दो-दो आलापक कहने चाहिए, यथा—(१) पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमाता है, (२) पुद्गलों को ग्रहण किये बिना नहीं परिणमाता।
विवेचन–बाह्य पुद्गलों के ग्रहणपूर्वक महर्द्धिकादिदेव की एक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के पुद्गलों को अन्य वर्णादि में विकुर्वण एवं परिणमन-सामर्थ्य प्रस्तुत ११ सूत्रों में महर्द्धिक देव के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्णादि के पुद्गलों को एक या अनेक अन्य वर्णादि के रूप में विकुर्वित अथवा परिणमित करने के सामर्थ्य के सम्बंध में निरूपण किया गया।
निष्कर्ष महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव देवलोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके उत्तरवैक्रियरूप बना सकता (विकुर्वणा करता) है और फिर दूसरे स्थान में जाता है, किन्तु इहगत अर्थात्—प्रश्नकार के समीपस्थ क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को तथा अन्यत्रगत-प्रज्ञापक के क्षेत्र और देश के स्थान से भिन्न क्षेत्र से रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं कर सकता है।
विभिन्न वर्णादि के २५ आलापकसूत्र—मूलपाठ में उक्त अतिदेशानुसार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आलापकसूत्र इस प्रकार बनते हैं -
(१) पांच वर्षों के १० द्विकसंयोगी आलापकसूत्र—(१) काले को नीलरूप में, (२) काले को लोहितरूप में, (३) काले को हारिद्ररूप में, (४) काले को शुक्लरूप में, (५) नीले को लोहितरूप में, (६) नीले को हारिद्ररूप में, (७) नीले को शुक्लरूप में, (८) लोहित को हारिद्ररूप में, (९) लोहित को शुक्लरूप में तथा (१०) हारिद्र को शुक्लरूप में परिणमा सकता है।
(२) दो गंध का एक आलापकसूत्र—(१) सुगन्ध को दुर्गन्धरूप में, अथवा दुर्गन्ध को सुगन्धरूप में।
(३) पांच रस के दस आलापकसूत्र-(१) तिक्त को कटुरूप में, (२) तिक्त को कषाय रूप में, (३) तिक्त को अम्लरूप में, (४) तिक्त को मधुररूप में, (५) कटु को कषायरूप में, (६) कटु को अम्लरूप में, (७) कटु को मधुररूप में, (८) कषाय को अम्लरूप में, (९) कषाय को मधुररूप में और (१०) अम्ल को मधुररूप में परिणमा सकता है।
(४)आठ स्पर्श के चार आलापकसूत्र—(१) गुरु को लघुरूप में अथवा लघु को गुरुरूप में, (२) शीत को उष्णरूप में या उष्ण को शीतरूप में, (३)स्निग्ध को रूक्षरूप में या रूक्ष को स्निग्धरूप में और (४) कर्कश को कोमलरूप में या कोमल को कर्कशरूप में परिणमा सकता है।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २८३ २. भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. ३३९