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छठा शतक : उद्देशक-९
गोयमा ! नो इणठे।।
[२ प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले और एक रूप (एक आकार वाले) (स्वशरीरादि) की विकुर्वणा करने में समर्थ है ?
[२ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ३. देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियादिइत्ता पभू? हंता, पभू।
[३ प्र.] भगवन् ! क्या वह देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (उपर्युक्त रूप से) विकुर्वणा करने में समर्थ है ?
[३ उ.] हाँ, गौतम ! (वह ऐसा करने में) समर्थ है।
४. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति, तत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुव्वति, अन्नत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति ?
गोयमा! नो इहगते पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति, तत्थगते पोग्गले परियदिइत्ता विकुव्वति, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति।
[४ प्र.] भगवन् ! क्या वह देव इहगत (यहाँ रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अथवा तत्रगत (वहाँ-देवलोक में रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अथवा अन्यत्रगत (किसी दूसरे स्थान में रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ?
[४ उ.] गौतम ! वह देव यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, वह वहाँ (देवलोक में रहे हुए तथा जहाँ विकुर्वणा करता है, वहाँ) के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को गहण करके विकुर्वणा नहीं करता?
५. एवं एतेणं गमेणं जाव एगवण्णं एगरूवं, एगवण्णं अणेगरूवं, अणेगवण्णं एगरूवं, अणेगवण्णं अणेगरूवं, चउण्हं चउभंगो।
[५] इस प्रकार इस गम (आलापक) द्वारा विकुर्वणा के चार भंग कहने चाहिए। (१) एक वर्ण वाला और एक आकार (रूप) वाला, (२) एक वर्ण वाला और अनेक आकार वाला, (३) अनेक वर्ण और एक आकार वाला तथा (४) अनेक वर्ण वाला और अनेक आकार वाला। (अर्थात् वह इन चारों प्रकार के रूपों को विकुर्वित करने में समर्थ है।)
६. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियादिइत्ता पभू कालगं पोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामित्तए ? नीलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामित्तए ?
गोयमा ! नो इणढे समठे, परियादिइत्ता पभू।