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छठा शतक : उद्देशक-८ और उत्पन्न होते हैं। इन सब समुद्रों का संस्थान समान है किन्तु विस्तार की अपेक्षा ये पूर्व-पूर्व द्वीप से दुगनेदुगने होते चले गये हैं। द्वीप-समुद्रों के शुभ नामों का निर्देश
३६. दीव-समुद्दा णं भंते ! केवतिया नामधेजेहिं पण्णत्ता ?
गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा, सुभा रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा एवतिया णं दीव-समुद्दा नामधेजेहिं पण्णत्ता। एवं नेयव्वा सुभा नामा, उद्धारो परिणामो सव्वजीवाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥छठे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो॥ [३६ प्र.] भगवन् ! द्वीप-समुद्रों के कितने नाम कहे गए हैं ?
[३६ उ.] गौतम ! इस लोक में जितने भी शुभ नाम, शुभ रूप, शुभ रस, शुभ गन्ध और शुभ स्पर्श हैं, उतने ही नाम द्वीप-समुद्रों के कहे गए हैं। इस प्रकार सब द्वीप-समुद्र शुभ नाम वाले जानने चाहिए तथा उद्वार, परिणाम और सर्व जीवों का (द्वीपों एवं समुद्रों में) उत्पाद जानना चाहिए।
____ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है , भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् श्री गौतम स्वामी विचरण करने लगे।
विवेचन द्वीपों-समुद्रों के शुभ नामों का निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। द्वीप-समुद्रों के शुभ नाम—यह समुद्र बहुत-से उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुन्दर एवं सुगन्धित पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, केशर एवं विकसित पद्मों आदि से युक्त हैं। स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि सुशब्द, पीतादि सुन्दर रूपवाचक शब्द, कपूर आदि सुगन्धवाचक शब्द, मधुररसवाचक शब्द, नवनीत आदि मृदुस्पर्शवाचक शब्द जितने भी इस लोक में हैं, उतने ही शुभ नामों वाले द्वीप-समुद्र हैं।
ये द्वीप-समुद्र उद्धार, परिणाम और उत्पाद वाले–ढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम या २५ कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम में जितने समय होते हैं, उतने लोक में द्वीप-समुद्र हैं, ये द्वीप-समुद्र पृथ्वी, जल, जीव और पुद्गलों के परिणाम वाले हैं, इनमें जीव पृथ्वीकायिक से यावत् त्रसकायिक रूप में अनेक या अनन्त वार पहले उत्पन्न हो चुके है।
॥ छठा शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त॥
१. (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवादटिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. ३३४-३३५
(ख) जीवाजीवाभिगमसूत्र वृत्तिसहित प्रतिपत्ति ३, पत्रांक ३२०-३२१
(ग) तत्त्वार्थसूत्र सभाष्य, अ. ३, सू. ८ से १३ तक २. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २८२
(ख) जीवाजीवाभिगम. सवृत्तिक पत्र-३७२-३७३ (ग) तत्त्वार्थ. अ.३, सू. ७