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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[२७ "चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, किन्तु अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते"; यहाँ तक सारा वर्णन असुरकुमार देवों की तरह समझ लेना चाहिए।
[४-११] एवं सुवण्णकुमाराण वि जाव' थणियकुमाराणं ति।
[४ से ११ तक] इसी तरह सुपर्णकुमार देवों से लेकर स्तनितकुमार (शेष सभी भवनपति) देवों तक के भी (स्थिति से लेकर चलित कर्म-निर्जरा तक के) सभी आलापक (पूर्ववत्) कह देने चाहिए।
विवेचन-भवनपतिदेवों की स्थिति आदि के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-छठे सूत्र से दूसरे अवान्तर विभाग (दण्डक) तक (स्तनितकुमार पर्यन्त) की स्थिति आदि के सम्बन्ध में नारकों की तरह, क्रमशः प्रश्नोत्तर अंकित हैं।
नागकुमारों की स्थिति के विषय में स्पष्टीकरण-मूल पाठ में उक्त नागकुमारों की देशोन दो पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति उत्तर दिशा के नागकुमारों की अपेक्षा से समझनी चाहिए। दक्षिण-दिशावर्ती नागकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति डेढ़ पल्योपम की है। पृथिवीकाय आदि स्थविर चर्चा
[१२-१] पुढविक्काइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। [१२-१ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [१२-१ उ.] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, और उत्कृष्टः बाईस हजार वर्ष की है। [१२-२] पुढविक्काइया केवइकालस्स आणमंति वा ४ ? गोयमा! वेमायाए आणमंति वा ४। [१२-२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में श्वास-नि:श्वास लेते हैं ?
[१२-२ उ.] गौतम! (वे) विमात्रा से - विविध या विषम काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं, (अर्थात्- इनके श्वासोच्छ्वास का समय स्थिति के अनुसार नियत नहीं है।)
[१२-३] पुढविक्काइया आहारट्ठी ? हंता, आहारट्ठी। [१२-३ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव आहार के अभिलाषी होते हैं ? [१२-३ उ.] हाँ, गौतम! वे आहारार्थी होते हैं। [१२-४] पुढविक्काइयाणं केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ?
गोयमा! अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ। १. यहाँ 'जाव' शब्द सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार और
स्तनितकुमार, इन शेष ८ भवनपतिदेवों का सूचक है। २. कहा है-"दाहिणदिवढपलियं, दो देसणतरिल्लाणं।"