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________________ २४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बांधे हैं, उसी रूप में भोगने पड़ें, वे निकाचित कर्म कहलाते हैं। चलित-अचलित-जिन आकाशप्रदेशों में जीवप्रदेश अवस्थित हैं उन्हीं आकाशप्रदेशों में जो अवस्थित न हों, ऐसे कर्म चलित कहलाते हैं, इससे विपरीत कर्म अचलित। देव(असुरकुमार)चर्चा [२-१] असुरकुमाराणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं। [२-१ प्र.] भगवन्! असुरकुमारों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [२-१ उ.] हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की [२-२] असुरकुमाराणं भंते! केवइकालस्स आणमंति वारे ४? गोयमा! जहन्नेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा ४। [२-२ प्र.] भगवन्! असुरकुमार कितने समय में श्वास लेते हैं और कितने समय में नि:श्वास छोड़ते हैं ? [२-२ उ.] गौतम! जघन्य सात स्तोकरूप काल में और उत्कृष्ट एक पक्ष (पखवाड़े से (कुछ) अधिक समय में श्वास लेते और छोड़ते हैं। [२-३] असुरकुमाराणं भंते! आहारट्ठी? हंता आहारट्ठी। [२-३ प्र.] हे भगवन्! क्या असुरकुमार आहार के अभिलाषी होते हैं ? [२-३ उ.] हाँ, गौतम! (वे) आहार के अभिलाषी होते हैं। [२-४] असुरकुमाराणं भंते! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा! असुरकुमाराणं दुविहे आहारे पण्णत्ते। तं जहा-आभोगनिव्वत्तिए य, भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २४-२५ वही, पत्रांक २८ "आणमंतिवा"के बाद'४'का अंक'पाणमंतिवाऊससंति वानीससंतिवा': इन शेष तीन पदों का सूचक है। हट्ठस्स अणवगल्लस, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसास-निसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ। सत्त पाणणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए, एम मुहत्ते वियाहिए। अर्थात्-रोगरहित, स्वस्थ, हष्टपुष्ट प्राणी के एक श्वासोच्छ्वस (उच्छ्वास-नि:श्वास) को एक प्राण कहते हैं। सात प्राणों का एक स्तोक होता है, सात स्तोकों का एक लव और ७७ लवों का एक मुहूर्त होता है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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