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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बांधे हैं, उसी रूप में भोगने पड़ें, वे निकाचित कर्म कहलाते हैं।
चलित-अचलित-जिन आकाशप्रदेशों में जीवप्रदेश अवस्थित हैं उन्हीं आकाशप्रदेशों में जो अवस्थित न हों, ऐसे कर्म चलित कहलाते हैं, इससे विपरीत कर्म अचलित। देव(असुरकुमार)चर्चा
[२-१] असुरकुमाराणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं। [२-१ प्र.] भगवन्! असुरकुमारों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [२-१ उ.] हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की
[२-२] असुरकुमाराणं भंते! केवइकालस्स आणमंति वारे ४? गोयमा! जहन्नेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा ४।
[२-२ प्र.] भगवन्! असुरकुमार कितने समय में श्वास लेते हैं और कितने समय में नि:श्वास छोड़ते हैं ?
[२-२ उ.] गौतम! जघन्य सात स्तोकरूप काल में और उत्कृष्ट एक पक्ष (पखवाड़े से (कुछ) अधिक समय में श्वास लेते और छोड़ते हैं।
[२-३] असुरकुमाराणं भंते! आहारट्ठी? हंता आहारट्ठी। [२-३ प्र.] हे भगवन्! क्या असुरकुमार आहार के अभिलाषी होते हैं ? [२-३ उ.] हाँ, गौतम! (वे) आहार के अभिलाषी होते हैं। [२-४] असुरकुमाराणं भंते! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा! असुरकुमाराणं दुविहे आहारे पण्णत्ते। तं जहा-आभोगनिव्वत्तिए य, भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २४-२५ वही, पत्रांक २८ "आणमंतिवा"के बाद'४'का अंक'पाणमंतिवाऊससंति वानीससंतिवा': इन शेष तीन पदों का सूचक
है।
हट्ठस्स अणवगल्लस, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसास-निसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ। सत्त पाणणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए, एम मुहत्ते वियाहिए। अर्थात्-रोगरहित, स्वस्थ, हष्टपुष्ट प्राणी के एक श्वासोच्छ्वस (उच्छ्वास-नि:श्वास) को एक प्राण कहते हैं। सात प्राणों का एक स्तोक होता है, सात स्तोकों का एक लव और ७७ लवों का एक मुहूर्त होता है।