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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्रदेश-अप्रदेश पुद्गलों का अल्प-बहुत्व-सबसे थोड़े एक गुण काला आदि भाव से अप्रदेशी पुद्गल हैं, उनसे असंख्यात गुणा हैं-एक समय की स्थितिवाले-काल से अप्रदेशी पुद्गल। उनसे असंख्यातगुणा हैं-समस्त परमाणु पुद्गल, जो द्रव्य से अप्रदेशी पुद्गल हैं, उनसे भी असंख्यात गुणे हैं-क्षेत्र से अप्रदेशी पुद्गल, जो एक-एक आकाशप्रदेश के अवगाहन किये हुए हैं। उनसे भी असंख्यातगुण हैं-क्षेत्र से सप्रदेशी पुद्गल, जिनमें द्विप्रदेशावगाढ़ से लेकर असंख्येयप्रदेशावगाढ़ आते हैं। उनसे द्रव्य से सप्रदेशी पुद्गल-अर्थात्-द्विप्रदेशस्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के पुद्गल विशेषाधिक हैं। उनसे काल से सप्रदेशी पुद्गल-दो समय की स्थिति वाले से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल विशेषाधिक हैं। उनमें भी भाव से सप्रदेशी पुद्गल-दो गुण काले यावत् अनन्तगुणकाले पुद्गल आदि विशेषाधिक हैं । संसारी और सिद्ध जीवों की वृद्धि हानि और अवस्थिति एवं उनके कालमान की प्ररूपणा
१०. 'भंते!' त्ति भगवं गोतमे समणं जाव एवं वदासी-जीवा णं भंते! किं वड्ढंति, हायंति, अवट्ठिया ?
गोयमा! जीवा णो वड्ढेति, नो हायंति, अवट्ठिता।
[१० प्र.] 'भगवन्!' यों कह कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से - यावत् इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या जीव बढ़ते हैं या घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ?
[१० उ.] गौतम! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, किन्तु अवस्थित रहते हैं। ११. नेरतिया णं भंते! किं वड्ढंति, हायंति, अवट्टिता? गोयमा! नेरइया वड्ढंति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि। [११ प्र.] भगवन्! क्या नैरयिक बढ़ते हैं, घटते हैं, अथवा अवस्थित रहते हैं ? [११ उ.] गौतम! नैरयिक बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। १२. जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया।
[१२] जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा, इसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त (चौबीस ही दण्डकों के जीवों के विषय में) कहना चाहिए।
१३. सिद्धा णं भंते! ० पुच्छा। गोयमा! सिद्धा वड्ढंति, नो हायंति, अवट्ठिता वि।
[१३ प्र.] भगवन्! सिद्धों के विषय में मेरी पृच्छा है (कि वे बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ?)
[१३ उ.] गौतम! सिद्ध बढ़ते हैं, घटते नहीं, वे अवस्थित भी रहते हैं।
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(क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २४३ (ख) भगवती (हिन्दी विवेचन) भा. २, पृ. ९०१