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प्रथम शतक : उद्देशक - १]
नमस्कार करते हैं उसी प्रकार ' णमो तित्थस्स' (तीर्थ को नमस्कार हो) कह कर परम आदरणीय तथा परम उपकारी होने से श्रुत (प्रवचन का सिद्धान्त) 1- रूप भावतीर्थ को भी नमस्कार करते हैं ।
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श्रुत भी भावतीर्थ हैं क्योंकि द्वादशांगी - ज्ञानरूप श्रुत के सहारे से भव्यजीव संसारसागर से तर जाते हैं तथा श्रुत अर्हन्त भगवान् के परम केवलज्ञान से उत्पन्न हुआ है, इस कारण इष्टदेवरूप है । गणधर श्रुत को नमस्कार किया है उसके तीन कारण प्रतीत होते हैं - (१) श्रुत की महत्ता प्रदर्शित करने हेतु, (२) श्रुत पर भव्यजीवों की श्रद्धा बढ़े एवं (३) भव्य जीव श्रुत का आदर करें, आदरपूर्वक श्रवण करें । १ प्रथम उद्देशक : उपोद्घात -
४ – (१) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था । वण्णओ । तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे गुणसिलए नामं चेइए होत्था ।
४- - (१) उस काल (अवसर्पिणी काल के) और उस समय (चौथे आरे - भगवान् महावीर के युग में) राजगृही नामक नगर था । वर्णक । (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र में अंकित चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ लेना चाहिए) उस राजगृह के बाहर उत्तर-पूर्व के दिग्भाग ( ईशानकोण) में शील नामक चैत्य (व्यन्तरायतन ) था । वहाँ श्रेणिक ( भम्भासार - बिम्बसार ) राजा राज्य करता था और चिल्लणादेवी उसकी रानी थी।
(२) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगणाहे लोगप्पदीवे लोगपज्जोयगरे अभयदये चक्खुदये मग्गदये सरणदये धम्मदेसर धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवट्ठी अप्पडिहयवरनाणदंसणधरे वियट्टछउमे जिणे जावए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयए सव्वण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुजमणंत मक्खयमव्वाबाहं 'सिद्धिगति' नामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं ।
परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ । परिसा पडिगया ।
(२) उस काल में, उस समय में (वहाँ ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरण कर रहे थे, जो आदि-कर (द्वादशांगीरूप श्रुत के प्रथमकर्त्ता ), तीर्थंकर (प्रवचन या संघ के कर्त्ता) सहसम्बुद्ध (स्वयं तत्त्व के ज्ञाता), पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह (पुरुषों में सिंह की तरह पराक्रमी), पुरुषवर - पुण्डरीक (पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक - श्वेत-कमल रूप), पुरुषवरगन्धहस्ती (पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान), लोकोत्तम, लोकनाथ (तीनों लोकों की आत्माओं के योग-क्षेमंकर), (लोकहितकर) लोक-प्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता (श्रुतधर्मरूपी नेत्रदाता), मार्गदाता (मोक्षमार्ग- प्रदर्शक), शरणदाता ( त्राण - दाता), (बोधिदाता), धर्मदाता, धर्मोपदेशक, (धर्मनायक), धर्मसारथि (धर्मरथ के सारथि), धर्मवर - चातुरन्तचक्रवर्ती, अप्रतिहत (निराबाध) ज्ञान - दर्शनधर, छद्मरहित ( छलकपट और ज्ञानादि आवरणों से दूर), जिन ( रागद्वेषविजेता), ज्ञायक (सम्यक् ज्ञाता), बुद्ध (समग्र तत्त्वों को जानकर रागद्वेषविजेता), बोधक (दूसरों को तत्त्वबोध देने वाले), मुक्त (बाह्य - आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित), मोचक (दूसरों को कर्मबन्धनों से मुक्त कराने वाले), सर्वज्ञ (समस्त पदार्थों के विशेष रूप से ज्ञाता) सर्वदर्शी (सर्व पदार्थों के सामान्य
१. भगवती अभयदेववृत्ति पत्रांक ६