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पंचम शतक : उद्देशक-७]
[४९५ किले के बीच में हाथी आदि के जाने का मार्ग), द्वार, गोपुर (नगरद्वार), ये सब परिगृहीत किये होते हैं। इनके द्वारा प्रासाद (देवभवन या राजमहल), घर , सरण (झोंपड़ा), लयन (पर्वतगृह), आपण (दुकान) परिगृहीत किये जाते हैं। शृङ्गाटक (सिंघाड़े के आकार का त्रिकोण मार्ग), त्रिक (तीन मार्ग मिलते हैं; ऐसा स्थान), चतुष्क (चौक-जहाँ चार मार्ग- मिलते हैं); चत्वर (जहाँ सब मार्ग मिलते हों ऐसा स्थान, या आंगन), चतुर्मुख (चार द्वारों वाला मकान या देवालय), महापथ (राजमार्ग या चौड़ी सड़क) परिगृहीत होते हैं। शकट (गाड़ी), रथ, यान (सवारी या वाहन), युग्य (युगल हाथ प्रमाण एक प्रकार की पालखी), गिल्ली (अम्बाड़ी), थिल्ली (घोड़े का पलान—काठी), शिविका (पालखी या डोली), स्यन्दमानिका (म्याना या सुखपालकी) आदि परिगृहीत किये होते हैं। लोही (लोहे की दाल-भात पकाने की देगची या बटलोई), लोहे की कड़ाही, कुड़छी आदि चीजें परिग्रहरूप में गृहीत होती हैं। इनके द्वारा भवन (भवनपति देवों के निवासस्थान) भी परिगृहीत होते हैं। (इनके अतिरिक्त) देवदेवियाँ मनुष्य-नर-नारियाँ, एवं तिर्यंच नर-मादाएँ, आसन, शयन, खण्ड (टुकड़ा), भाण्ड (बर्तन या
मान) एवं सचित्त. अचित्त और मिश्र द्रव्य परिगहीत होते हैं। इस कारण से ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, किन्तु अनारम्भी-अपिरग्रही नहीं होते।
३५. जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियव्वा।
[३५] जिस प्रकार तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय जीवों के (सारम्भ सपरिग्रह होने के) विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए।
३६. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया तहा नेयव्वा।
[३६] जिस प्रकार भवनवासी देवों के विषय में कहा, वैसे ही वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के (आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने के) विषय में (सहेतुक) कहना चाहिए।
विवेचन–चौबीस दण्डकों के जीवों के आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने की सहेतुक प्ररूपणा प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. ३० से ३६ तक) में नारकों से लेकर वैमानिक तक चौबीस ही दण्डकों के जीवों के आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने की कारण सहित प्ररूपणा विविध प्रश्नोत्तरों द्वारा की गई
है।
आरम्भ और परिग्रह का स्वरूप-आरम्भ का अर्थ है—प्रवृत्ति जिससे किसी भी जीव का उपमर्दन–प्राणहनन होता हो। और परिग्रह का अर्थ है किसी भी वस्तु या भाव का ममता-मूर्छापूर्वक ग्रहण या संग्रह । यद्यपि एकेन्द्रिय आदि जीव आरम्भ करते या परिग्रहयुक्त होते दिखाई नहीं देते, तथापि जब तक जीव द्वारा मन-वचन-काय से स्वेच्छा से आरम्भ एवं परिग्रह का प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया जाता, तब तक आरम्भ और परिग्रह का दोष लगता ही है, इसलिए उन्हें आरम्भ-परिग्रहयुक्त कहा गया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय प्राणियों के भी सिद्धान्तानुसार शरीर, कर्म एवं कुछ सम्बन्धित उपकरणों का परिग्रह होता है, और उनके द्वारा अपने खाद्य, शरीररक्षा आदि कारणों से आरम्भ भी होता है। तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों, मनुष्यों, नारकों, तथा समस्त प्रकार के देवों के द्वारा आरम्भ और परिग्रह में लिप्तता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि मनुष्यों में वीतराग पुरुष, केवली, तथा निर्गन्थ साधु-साध्वी