________________
'पंचम शतक : उद्देशक-४]
[४४१ स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर उन स्थविर मुनियों ने अतिमुक्तक कुमारश्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार किया और यावत् वे उसकी वैयावृत्य (सेवाशुश्रूषा) करने लगे।
विवेचन अतिमुक्तक कुमारश्रमण की बालचेष्टा तथा भगवान् द्वारा स्थविरों का समाधान
प्रस्तुत १७वें सूत्र के पांच विभागों में अतिमुक्तक कुमार श्रमण द्वारा पात्ररूपी नौका वर्षा के जल में तिराने की बालचेष्टा से लेकर भगवान् द्वारा किये गये समाधान से स्थविरों की अतिमुक्तक मुनि की सेवा में अग्लानिपूर्वक संलग्नता तक का वृत्तान्त दिया गया है।
भगवान् द्वारा आविष्कृत सुधार का मनोवैज्ञानिक उपाय-यद्यपि अतिमुक्तक कुमारश्रमण द्वारा सचित्त जल में अपने पात्र को नौका रूप मानकर तिराना और क्रीड़ा करना, साधुजीवन चर्या में दोषयुक्त था, उसे देखकर स्थविरमुनियों के मन में अतिमुक्तक श्रमण के संयम के प्रति शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक था। किन्तु एक तो बालसुलभ स्वभाव के कारण अतिमुक्तक मुनि से ऐसा हुआ था, दूसरे वे प्रकृति से भद्र, सरल और विनीत थे, हठाग्रही और अविनीत नहीं थे। इसलिए एकान्त में वात्सल्यभाव से भगवान् ने उन्हें समझाया होगा तब वे तुरन्त अपनी भूल को मान गए होंगे, और उसके लिए यथोचित प्रायश्चित लेकर उन्होंने आत्मशुद्धि भी कर ली होगी। शास्त्र के मूलपाठ में उल्लेख न होने पर भी 'पगइभद्दए जाव पगइविणीए' पदों से ऐसी संभावना की जा सकती है।
दूसरी ओर भगवान् ने स्थविरों की मनोदशा अतिमुक्तक के प्रति घृणा, उपेक्षा, अवमानना और ग्लानि से युक्त देखी तो उन्होंने स्थविरों को भी वात्सल्यवश सम्बोधित करके अतिमुक्तक के प्रति घृणादि भाव छोड़कर अग्लानभाव से उसकी सेवा करने की प्रेरणा दी। ऐसे मनोवैज्ञानिक उपाय से भगवान् ने दोषयुक्त व्यक्ति को सुधारने का अचूक उपाय बता दिया। साथ ही अतिमुक्तक मुनि में निहित गुणों को प्रकट करके उन्हें भगवान् ने चरमशरीरी एवं भवान्तर कर बताया, यह भी स्थविरों को घृणादि से मुक्त करने का ठोस उपाय था।
___ 'कुमारश्रमण'—अल्पवय में दीक्षित होने के कारण अतिमुक्तक को 'कुमारश्रमण' कहा गया
दो देवों के मनोगत प्रश्न के भगवान्द्वारा प्रदत्त मनोगत उत्तर पर गौतमस्वामी का मनःसमाधान
१८.[१]तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्कातो कप्पातो महासामाणातो विमाणातो दो देवा महिडीया जाव३ महाणभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउब्भता।
[१८-१] उस काल और उस समय में महाशुक्र कल्प (देवलोक) से महासामन (महासर्ग या महास्वर्ग) नामक महाविमान (विमान) से दो महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रादुर्भूत (प्रकट) हुए (आए)। १. (क) भगवती. (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड २, पृ. १७७-१७८
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २१९ के आधार पर २. पाठान्तरमहासग्गातो महाविमाणाओ' ३. 'जाव' पद से 'महज्जुती' इत्यादि देववर्णन में आया हुआ समग्र विशेषणयुक्त पाठ कहना चाहिए।