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________________ ४२८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१ उ.] गौतम ! उन अन्यतीर्थिकों ने जो यह कहा है कि.... यावत् एक ही जीव, एक ही समय में इस भव का और पर-भव का दोनों का आयुष्य (एक साथ) वेदता है, उनका यह सब (पूर्वोक्त) कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूं, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि जैसे कोई एक जालग्रन्थि हो और वह यावत्...परस्पर संघटित [सामूहिक रूप से संलग्न रहती है, इसी प्रकार क्रमपूर्वक बहुत-से सहस्रों जन्मों से सम्बन्धित, बहुत-से हजारों आयुष्य, एक-एक जीव के साथ श्रृंखला (सांकल) की कड़ी के समान परस्पर क्रमशः ग्रथित (गूंथे हुए) यावत् रहते हैं। (ऐसा होने से) एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करता है, जैसे कि-या तो वह इस भव का ही आयुष्य वेदता है, अथवा पर भव का ही आयुष्य वेदता है। परन्तु जिस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता, और जिस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। इस भव के आयुष्य का वेदन करने से परभव का आयष्य नहीं वेदा जाता और परभव के आयष्य का वेदन करने से इस भव का आयष्य नहीं वेदा जाता। इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का वेदन करता है; वह इस प्रकार-या तो इस भव के आयुष्य का, अथवा परभव के आयुष्य का। विवेचन—एक जीव द्वारा एक समय में इहभविक एवं परभविक आयुष्य वेदन विषयक अन्यतीर्थिकमतनिराकरण पूर्वक भगवान् का समाधान—प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीर्थिकों के एक जीव द्वारा एक समय में उभयभविक आयुष्य-वेदन के मत का खण्डन करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित एकभविक आयुष्य-वेदन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। जाल की गांठों के समान अनेक जीवों के अनेक आयुष्यों की गांठ—यहां अन्यतीर्थिकों के द्वारा निरूपित जाल (मछलियां पकड़ने के जाल) की गांठों का उदाहरण देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार जाल एक के बाद एक, क्रमपूर्वक, अन्तर-रहित गांठें देकर बनाया जाता है, और वह जाल उन सब गांठों से गुम्फित संलग्न रहता है। इसी तरह जीवों ने अनेक भव किये हैं, उन अनेक भवों के अनेक आयुष्य उस जाल की गांठों के समान परस्पर संलग्न हैं; इसलिए एक जीव दो भव का आयुष्य (एक साथ) वेदता है। भगवान् ने इस मत को मिथ्या बताया है। उनका आशय यह है कि अनेक जीवों के एक साथ अनेक आयुष्यों के या एक जीव के एक साथ दो आयुष्यों के वेदन को सिद्ध करने के लिए अन्यतीर्थिकों ने जो जालग्रन्थि का दृष्टान्त दिया है, वह अयुक्त है; क्योंकि प्रश्न होता है, वे सब आयुष्य जीव के प्रदेशों के साथ भलीभांति सम्बद्ध हैं तो जालग्रन्थि के समान उनको बताना मिथ्या है, क्योंकि वे सब आयुष्य तो भिन्न-भिन्न जीवों के साथ सम्बद्ध हैं, इस कारण वे सब पृथक्-पृथक् होने से उनको जालग्रन्थि की तरह परस्पर संलग्न बताना ठीक नहीं। यदि उनको जालग्रन्थि की तरह बताया जायेगा तो सभी जीवों का सम्बन्ध उन सब आयुष्यों के साथ मानना पड़ेगा, क्योंकि आयुष्यों का सीधा सम्बन्ध जीवों के साथ है। इसलिये जीवों के साथ जालग्रन्थि की तरह परस्पर सम्बन्ध माना जाने पर सभी जीवों द्वारा एक साथ सभी प्रकार के आयुष्य भोगने का प्रसंग आएगा, जो कि प्रत्यक्षबाधित है तथा जैसे एक जाल के साथ अनेक ग्रन्थियाँ होती हैं, एक जीव के साथ भी अनेक जीवों के आयुष्य का सम्बन्ध होने
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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