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________________ पंचम शतक : उद्देशक - २] जाते हैं 1 विवेचन—अस्थि आदि तथा अंगार आदि के शरीर का उनकी पूर्वावस्था और पश्चादवस्था की अपेक्षा से प्ररूपण प्रस्तुत सूत्रद्वय में प्रथम हड्डी आदि तथा प्रज्वलित हड्डी आदि एवं अंगार आदि के शरीर के विषय में पूछे जाने पर इनकी पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था की अपेक्षा से उत्तर दिये गये हैं । [ ४२५ अंगार आदि चारों अग्निप्रज्वलित ही विवक्षित—यहाँ अंगार आदि चारों द्रव्य अग्निप्रज्वलित ही विवक्षित हैं, अन्यथा आगे बताए गए अग्निध्यामित आदि विशेषण व्यर्थ हो जाते हैं । १ पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था —— हड्डी आदि तो भूतपूर्व अपेक्षा से त्रस जीव के और अंगार आदि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर कहे जा सकते हैं, किन्तु बाद की शस्त्रपरिणत एवं अग्निपरिणामित अवस्था की दृष्टि से ये सब अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। हड्डी आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों में से किसी भी जीव के तथा नख, खुर, सींग आदि पंचेन्द्रिय जीवों के ही शरीर में होते हैं। इसी प्रकार अंगारा या राख ये दोनों वनस्पति- कायिक हरी लकड़ी के सूख जाने पर बनती है। भूसा भी गेहूं आदि का होने से पहले एकेन्द्रिय (वनस्पतिकाय) का शरीर ही था, तथा गाय, भैंस आदि पशु जब हरी घास, पत्ती, या गेहूँ, जौ आदि का भूसा खाते है, तब उनके शरीर में से वह गोबर के रूप में निकलता है, अतः गोमय (गोबर) एकेन्द्रिय का शरीर ही माना जाता है। किन्तु पंचेन्द्रिय जीवों (पशुओं) के शरीर में द्वीन्द्रियादि जीव चले जाने से उनके शरीर प्रयोग से परिणामित होने से उन्हें द्वीन्द्रियजीव से लेकर पंचेन्द्रियजीव तक का शरीर कहा जा सकता है । २ लवणसमुद्र की स्थिति, स्वरूप आदि का निरूपण १८. लवणे णं भंते! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते ? एवं नेयव्वं जाव लोगट्ठिती लोगाणुभावे । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं जाव विहरति । ॥ पंचम सए : बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥ [१८ प्र.] भगवन्! लवणसमुद्र का चक्रवाल- विष्कम्भ (सब तरफ की चौड़ाई) कितना कहा गया है ? [१८ उ.] गौतम! (लवणसमुद्र के सम्बन्ध में, सारा वर्णन) पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक ( जीवाभिगमोक्त सूत्रपाठ ) कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर भगवान् गौतम स्वामी... यावत् विचरण करने लगे । विवेचन लवणसमुद्र की चौड़ाई आदि के सम्बन्ध में अतिदेशपूर्वक निरूपण— प्रस्तुत १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २१३ २. (क) भगवती. टीकानुवाद- टिप्पणयुक्त, खण्ड २, पृ. १६२ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २१३
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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