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________________ ४२२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आदि वायु चलती है, तब उसी प्रकार की दूसरी ईषत्पुरोवात आदि वायु नहीं चलती। इसका कारण है—वायु के द्रव्यों का स्वभाव एवं सामर्थ्य ऐसा है कि वह समुद्र की बेला का अतिक्रमण नहीं करतीं। इसका आशय यह भी सम्भव है-ग्रीष्मऋतु में समुद्र की ओर से आई हुई शीत (जल से स्निग्ध एवं ठण्डी) वायु जब चलती है, तब द्वीप की जमीन से उठी हुई उष्ण वायु नहीं चलती। शीत ऋतु में जब गर्म हवाएँ चलती हैं, तब वे द्वीप की जमीन से आई हुई होती हैं। यानी जब द्वीपीय उष्णवायु चलती है, तब समुद्रीय शीतवायु नहीं चलती। समुद्र की शीतल और द्वीप की उष्ण दोनों हवाएँ परस्पर विरुद्ध तथा परस्पर उपघातक होने से ये दोनों एक साथ नहीं चलतीं अपितु उन दोनों में से एक ही वायु चलती है। चतुर्विध वायु के बहने के तीन कारण—(१) ये अपनी स्वाभाविक गति से, (२) उत्तर वैक्रिय द्वारा कृत वैक्रियशरीर से, (३) वायुकुमार देव-देवीगण द्वारा स्व, पर और उभय के लिए उदीरणा किये जाने पर। यहाँ एक ही बात को तीन बार विविध पहलू से पूछे जाने के कारण तीन सूत्रों की रचना की गई है, इसलिए पुनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए। दूसरी वाचना के अनुसार ये तीन कारण पृथक्-पृथक् सूत्रों में बताए हैं, वे पृथक्-पृथक् प्रकार की वायु के बहने के बताए हैं। यथा-पहला कारण-महावायु के सिवाय अन्य वायुओं के बहने का है। दूसरा कारण-मन्दवायु के सिवाय अन्य तीन वायु के बहने का है। और तीसरा कारण-चारों प्रकार की वायु के बहने का है। . वायुकाय के श्वासोच्छ्वास आदि के सम्बन्ध में चार आलापक (१) स्कन्दक प्रकरणानुसार वायुकाय अचित्त (निर्जीव), वायु को श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण-विसर्जन करता है (२) वायकाय.स्वकाय शस्त्र के साथ अथवा परकायशस्त्र (पंखा आदि परनिमित्त से उत्पन्न हई वाय) से स्पष्ट होकर मरता है, बिना स्पष्ट हए नहीं मरताः (३) वायकाय अनेक लाख बार मर-मर कर पनः पुनः उसी वायुकाय में जन्म लेता है। (४) वायुकाय तैजस कार्मण शरीर की अपेक्षा सशरीरी परलोक में जाता है, तथा औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा अशरीरी होकर परलोक में जाता है। कठिन शब्दों के विशेष अर्थ—'दीविच्चया'-द्वीपसम्बन्धी, 'सामुद्दया' सामुद्रिक-समुद्र सम्बन्धी। वायंति-बहती हैं-चलती हैं। अहारियं रियंति-अपनी रीति या स्वभावानुसार गति करता है। पुढें-स्पृष्ट होकर, स्पर्श पाकर। ओदन, कुल्माष और सुरा की पूर्वावस्था और पश्चादवस्था के शरीर का प्ररूपण १४. अह भंते! ओदणे कुम्मासे सुरा एते णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा! ओदणे कुम्मासे सुराए य जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. १५८ (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २१२ भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २१२ (क) भगवतीसूत्र हिन्दीविवेचनयुक्त भा. २, पृ.७८० (ख) भगवती. (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड २, पृ. १६० (ग) इस प्रकरण का विस्तृत विवेचन भगवती. शतक २., उद्देशक १ में स्कन्दक प्रकरण में किया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ से देख लेना चाहिए। भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २१२
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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