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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रकार इन (देवों) के विषय में भी समझ लेना चाहिए। सुवर्णकुमार देवों पर—वेणुदेव, वेणुदालि, चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष और विचित्रपक्ष (का आधिपत्य रहता है।); विद्युतकुमार देवों पर-हरिकान्त, हरिसिंह, प्रभ, सुप्रभ, प्रभाकान्त और सुप्रभाकान्त (का आधिपत्य रहता है।); अग्निकुमार देवों पर—अग्निसिंह, अग्निमाणव, तेजस्, तेज:सिह तेजस्कान्त और तेज:प्रभ (आधिपत्य करते हैं।); द्वीपकुमार-देवों पर—पूर्ण, विशिष्ट, रूप, रूपांश, रूपकान्त और रूपप्रभ (आधिपत्य करते हैं।); उदधिकुमार देवों पर—जलकान्त (इन्द्र),जलप्रभ (इन्द्र), जल, जलरूप, जलकान्त और जलप्रभ का (आधिपत्य है।); दिक्कुमार देवों पर—अमितगति, अमितवाहन, तूर्यगति, क्षिप्रगति, सिंहगति और सिंहविक्रमगति (आधिपत्य करते हैं।); वायुकुमार देवों पर-वेलम्ब, प्रभञ्जन, काल, महाकाल, अंजन और रिष्ट (का आधिपत्य रहता है।); तथा स्तनितकुमार देवों पर—घोष, महाघोष, आवर्त, व्यावर्त, नन्दिकावर्त
और महानन्दिकावर्त (का आधिपत्य रहता है।) इन सबका कथन असुरकुमारों की तरह कहना चाहिए। दक्षिण भवनपति देवों के अधिपति इन्द्रो के प्रथम लोकपालों के नाम इस प्रकार हैं—सोम, कालपाल, चित्र, प्रभ, तेजस्, रूप, जल, त्वरितगति, काल और आयुक्त।
विवेचन भवनपतिदेवों के अधिपति के विषय में प्ररूपण—प्रस्तुत तीन सूत्रों में भवनपति देवों के असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भेदों तथा दक्षिण भवनपति देवों के अधिपतियों के विषय में निरूपण किया गया है।
आधिपत्य में तारतम्य जिस प्रकार मनुष्यों में भी पदों और अधिकारों के सम्बन्ध में तारतम्य होता है, वैसे ही यहाँ दशविध भवनपतिदेवों के आधिपत्य में तारतम्य समझना चाहिए। जैसे कि असुरकुमार आदि दसों प्रकार के भवनपतियों में प्रत्येक के दो-दो इन्द्र होते हैं, यथा-असुरकुमार देवों के दो इन्द्र हैं—(१) चमरेन्द्र और (२) बलीन्द्र, नागकुमार देवों के दो इन्द्र हैं—(१) धरणेन्द्र और (२) भूतानन्देन्द्र। इसी प्रकार प्रत्येक के दो-दो इन्द्रों का आधिपत्य अपने अधीनस्थ लोकपालों तथा अन्य देवों पर होता है, और लोकपालों का अपने अधीनस्थ देवों पर आधिपत्य होता है। इस प्रकार आधिपत्य, अधिकार, ऋद्धि, वर्चस्व एवं प्रभाव आदि में तारतम्य समझ लेना चाहिए।
दक्षिण भवनपति देवों के इन्द्र और उनके प्रथम लोकपाल मूल में भवनपति देव दो प्रकार के हैं-उत्तर दिशावर्ती और दाक्षिणात्य। उत्तरदिशा के दशविध भवनपति देवों के जो जो अधीनस्थ देव होते हैं, इन्द्र से लेकर लोकपाल आदि तक, उनका उल्लेख इससे पूर्व किया जा चुका है। इसके पश्चात् दाक्षिणात्य भवनपति देवों के सर्वोपरि अधिपति इन्द्रों के प्रथम लोकपालों के नाम सूचित किये हैं। इस सम्बन्ध में एक गाथा भी मिलती है
'सोमे य कालवाले य चित्रप्पभ-तेउ तह रुए चेव।
जल तह तुरियगई य काले आउत्त पढमा उ॥' इसका अर्थ पहले आ चुका है। १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २००
(ख) तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ४, सू.६–'पूर्वयोर्दीन्द्राः' का भाष्य देखिये।