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________________ ३५०] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१४ प्र.] भगवन् ! जो जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वह किस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? । [१४ उ.] गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, उसी लेश्या वालों में वह उत्पन्न होता है। जैसे कि तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अथवा शुक्ललेश्या वालों में। विवेचन–नारकों से लेकर वैमानिक देवों तक में उत्पन्न होने योग्य जीवों की लेश्या का प्ररूपण प्रस्तुत सूत्र-त्रय में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक (२४ दण्डकों) में से कहीं भी उत्पन्न होने वाले जीव की लेश्या के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। एक निश्चित सिद्धान्त—जैन दर्शन का एक निश्चित सिद्धान्त है कि अन्तिम समय में जिस लेश्या में जीव मरता है, उसी लेश्या वाले जीवों में वह उत्पन्न होता है। इसी दृष्टिकोण को लेकर तीनों सूत्रों में नारक, ज्योतिष्क एवं वैमानिक पर्याय में उत्पन्न होने वाले जीवों की लेश्या के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया तो शास्त्रकार ने उसी सिद्धान्तवाक्य को पुनः पुनः दोहराया है—'जल्लेसाई दव्वाई परिआइत्ता कालं करेड, तल्लेसेस उववज्जड'—जिस लेश्या से सम्बद्ध द्रव्यों को ग्रहण करके जीव मृत्यु प्राप्त करता है, उसी लेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है। तीन सूत्र क्यों?—इस दृष्टि से पूर्वोक्त सिद्धान्त सिर्फ एक (१२वें) सूत्र में बतलाने से ही काम चल जाता, शेष दो सूत्रों की आवश्यकता नहीं थी, किन्तु इतना बतलाने मात्र से काम नहीं चलता; यह भी बतलाना आवश्यक था कि किन जीवों में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? यथा-नैरयिकों में कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं, ज्योतिष्कों में एकमात्र तेजलोश्या और वैमानिकों में तेजो, पद्म एवं शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। __ अन्तिम समय की लेश्या कौन-सी ? —जो देहधारी मरणोन्मुख (म्रियमाण) है, उसका मरण बिल्कुल अन्तिम उसी लेश्या में हो सकता है, जिस लेश्या के साथ उसका सम्बन्ध कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक रहा हो। इसका अर्थ है—कोई भी मरणोन्मुख प्राणी लेश्या के साथ सम्पर्क के प्रथम पल में ही मर नहीं सकता, अपितु जब इसकी कोई अमुक लेश्या निश्चित हो जाती है, तभी वह पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करने जा सकता है और लेश्या के निश्चित होने में कम से कम अन्तर्मुहूर्त लगता है। निम्नोक्त तीन गाथाओं द्वारा आचार्य ने इस तथ्य का समर्थन किया है–समस्त लेश्याओं १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा.१, पृ. १६१ (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १८८ २. सव्वाहिं लेस्साहिं पढमे समयंमि परिणयाहिं तु । नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स ॥१॥ सव्वाहिं लेस्साहिं चरमे समयंमि परिणयाहिं तु । नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥२॥ अंतमुहुत्तंमि गए, अंतमुहुतंमि सेसए चेव । लेस्साहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ॥३॥ - भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक १८८ में उद्धत
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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