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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] [३४१ अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करते हैं । वन्दन-नमस्कार कर वे संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। विवेचन–प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम एवं अप्रमत्तसंयम के सर्वकाल का प्ररूपण प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः प्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम के समग्रकाल का, तथा अप्रमत्तसंयमी के अप्रमत्तसंयम के समग्र काल का, एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा से कथन किया गया है। प्रमत्तसंयम का काल एक समय कैसे?-प्रमत्तसंयम प्राप्त करने के पश्चात् यदि तुरन्त एक समय बीतने पर ही प्रमत्तसंयमी की मृत्यु हो जाए, इस अपेक्षा से प्रमत्तसंयमी का जघन्यकाल एक समय कहा है। अप्रमत्तसंयम का काल एक अन्तर्मुहूर्त क्यों ?–अप्रमत्तसंयम का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त इसलिए बताया गया है कि अप्रमत्तगुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त के बीच में मरता नहीं है। उपशमश्रेणी करता हुआ जीव बीच में ही काल कर जाए इसके लिए जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त का बताया है। इसका उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि-काल केवलज्ञानी की अपेक्षा से बताया गया है। क्योंकि केवली भी अप्रमत्तसंयत की गणना में आते हैं। छठे गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थान अप्रमत्त हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का अलग-अलग काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है, अर्थात् प्रमत्तसंयत अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अप्रमत्तदशा में अवश्य आता है और सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत प्रमत्त-अवस्था में अवश्य आता है। किन्तु दोनों गुणस्थानों का मिलाकर देशोनपूर्व कोटि काल बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि संयमी का उत्कृष्ट आयुष्य देशोनपूर्वकोटि का ही है। चतुर्दशी आदि तिथियों को लवणसमुद्रीय वृद्धि-हानि के कारण का प्ररूपण १७. 'भंते! त्ति भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, २ त्ता एवं वदासि कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दस-ऽट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु अतिरेयं वड्डति वा हायति वा ?' लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयव्वा जावरे लोयट्ठिती। जाव लोयाणुभावे। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरति। ॥ ततिए सए : तइओ उद्देसो समत्तो॥ [१७ प्र.] 'हे भगवन्!' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा—(पूछा-) 'भगवन्! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ?' [१७ उ.] हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यहाँ भी १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. १५८ २. भगवतीसूत्र अ. वृ., पत्रांक १८३ ३. 'जाव' शब्द सूचक पाठ लोयट्ठिती। जं णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं णो उप्पीलेति। णो चेव णं एगोदर्ग करेइ। लोयाणुभावे। सेवं भंते!
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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