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________________ तृतीय शतक : उद्देशक - ३] कर्मबन्ध होगा, ऐसी अकर्मस्थिति में अन्तक्रिया होगी ही । ( ४ ) इसे स्पष्टता से समझाने के लिए दो दृष्टान्त दिये गये हैं— (१) सूखे घास के पूले को अग्नि में डालते ही वह जल कर भस्म हो जाता है (२) तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली गई जल की बूंद तुरन्त सूख कर नष्ट हो जाती है; इसी प्रकार कम्पनादि क्रियारहित मनुष्य के कर्मरूप ईन्धन शुक्लध्यान के चतुर्थभेदरूप अग्नि में जल कर भस्म हो जाते हैं, सूखकर नष्ट हो जाते हैं। (५) तीसरा दृष्टान्त—– जैसे सैकड़ों छिद्रों वाली नौका छिद्रों द्वारा पानी से लबालब भर जाती है, किन्तु कोई व्यक्ति नौका के समस्त छिद्रों को बन्द करके नौका में भरे हुए सारे पानी को उलीच कर बाहर निकाल दे तो वह नौका तुरन्त पानी के ऊपर आ जाती है; इसी प्रकार आश्रवरूप छिद्रों द्वारा कर्मरूपी पानी से भरी हुई जीवरूपी नौका को, कोई आत्म- - संवृत एवं उपयोगपूर्वक समस्त क्रिया करने वाला अनगार आश्रवद्वारों (छिद्रों) को बन्द कर देता है और निर्जरा द्वारा संचित कर्मों को रिक्त कर देता है, ऐसी स्थिति में केवल ऐर्यापथिकी क्रिया उसे लगती है, वह भी प्रथम समय में बद्ध - स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में उदीरित एवं वेदित हो जाती है और तृतीय समय में वह जीव- प्रदेशों से पृथक् होकर निर्जीण हो जाती है। इस प्रकार की अक्रिय आश्रवरहित अकर्मरूप स्थिति में जीवरूपी नौका ऊपर आकर तैरती है। वह क्रियारहित व्यक्ति संसारसमुद्र से तिर कर अन्तक्रियारूप मुक्ति पा लेता है । विविध क्रियाओं का अर्थ एयति कम्पित होता है । वेयति- विविध प्रकार से कांपता है । चलति = स्थानान्तर करता है, गमनागमन करता है। फंदइ- थोड़ी-सी, धीमी-सी हल - चल करता है। घट्टइ=सब दिशाओं में चलता है । खुब्भइ - क्षुब्ध — चंचल होता है या पृथ्वी को क्षुब्ध कर देता है अथवा दूसरे पदार्थ को स्पर्श करता , डरता है । उदीरति = प्रबलता से प्रेरित करता है, दूसरे पदार्थों को हिलाता है । तं तं भावं परिणमति उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण आदि उस-उस भाव-क्रियापर्याय (परिणाम) को प्राप्त होता है। एजन (कम्पन) आदि क्रियाएँ क्रमपूर्वक और सामान्य रूप से सदैव होती हैं। आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ क्रम यों है— संरम्भ- पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करने का संकल्प करना, समारम्भ = उन्हें परिताप-संताप देना, तथा आरम्भ उन जीवों की हिंसा करना । 'दुक्खावणयाए' आदि पदों की व्याख्या- दुक्खावणयाए-मरणरूप या इष्टवियोगादिरूप दुःख पहुँचाने में। सोयावणताए - शोक, चिन्ता या दैन्य में डाल देने में। जूरावणताए झूराने, अत्यन्त शोक के बढ़ जाने से शरीर को जीर्णता- क्षीणता में पहुँचा देने में । तिप्पावणताए= रुलाने या आँसू गिरवाने में । पिट्टावणता = पिटवाने में। अंतकिरिया = समस्त कर्मध्वंसरूप स्थिति, मुक्ति । तणहत्थयं = घास का पूला । मसमसाविज्जइ = जल जाता है । जायतेयंति = अग्नि में । तत्तंसि अयकवल्लंसि=तपे हुए लोहे के कडाह में । वोलट्टमाणा - लबालब भरी हो । वोसट्टमाणा-पानी छलक रहा हो। उड्ढं उद्दाति ऊपर आ जाती है । अत्तत्तासंवुडस्स-आत्मा द्वारा आत्मा में संवृत्त हुए। I १. [ ३३९ (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) (पं. बेचरदासजी) भा. १, पृ. १५६ से १५८ तक (ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवादसहित) पं. बेचरदासजी खण्ड २, पृ. ७६ से ८० तक
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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