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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र व्याप्त, उवत्थडं-उपस्तीर्ण-आसपास फैला हुआ, संथर्ड-संस्तीर्ण-सम्यक् प्रकार से फैला हुआ, फुडं-स्पृष्ट—एक दूसरे से सटा हुआ, अवगाढावगाढं-अत्यन्त ठोस-दृढ़तापूर्वक जकड़े हुए।
चमरेन्द्र आदि की विकुर्वणाशक्ति प्रयोग रहित—यहाँ चमरेन्द्र आदि की जो विकुर्वणाशक्ति बताई गई है, वह केवल शक्तिमात्र है, क्रियारहित विषयमात्र है। चमरेन्द्र आदि सम्प्राप्ति (क्रियारूप) से इतने रूपों की विकुर्वणा किसी काल में नहीं करते।
देवनिकाय में दस कोटि के देव इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक, ये दस भेद प्रत्येक देवनिकाय में होते हैं, किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते। दसों में से यहाँ पाँच का उल्लेख है, उनके अर्थ इस प्रकार हैं-इन्द्र-अन्य देवों से असाधारण अणिमादिगुणों से सुशोभित, तथा सामानिक आदि सभी प्रकार के देवों का स्वामी। सामानिक-आज्ञा और ऐश्वर्य (इन्द्रत्व) के सिवाय आयु, वीर्य, परिवार, भोग-उपभोग आदि में इन्द्र के समान ऋद्धि वाले। त्रायस्त्रिंश—जो देव मंत्री और पुरोहित का काम करते हैं, ये संख्या में ३३ ही होते हैं । लोकपाल-आरक्षक के समान अर्थचर, लोक (जनता) का पालन-रक्षण करने वाले। आत्मरक्ष-जो अंगरक्षक के समान हैं।
अग्रमहिषियाँ—चमरेन्द्र की अग्रमहिषी (पटरानी) देवियां पांच हैं—काली, रात्रि, रत्नी, विद्युत् और मेधा। महत्तरिया महत्तरिका मित्ररूपा देवी। वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणाशक्ति
११. तए णं से तच्चे गो. वायुभूती अण० समणं भगवं० वंदइ नमसइ, २. एवं वदासी–जति णं भंते! चमरे असुररिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव (सु. ३) एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, बली णं भंते! वइरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिड्ढीए जाव (सु. ३) केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए ?
गोयमा! बली णं वइरोणिंदे वइरोयणराया महिड्ढीए जाव (सु. ३) महाणुभागे। से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं, सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं जहा चमरस्स,६ नवरं चउण्हं सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च जाव भुंजमाणे विहरति। से जहानाए एवं जहा चमरस्स; णवरं सातिरेगे केवलकप्पं जंबुद्दीवे दीवं ति भाणियव्वं सेसं तहेव जाव १. (क) भगवतीसूत्र विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. २, पृ.५३५ (ख) भगवती. अ. वृ., पत्र १५५ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १५५ ३. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १५४ (ख) तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि टीका, पृ. १७५५ ४. ज्ञाताधर्मकथांग, प्रथम वर्ग, १ से ५ अध्ययन।
पाठान्तर"तते णं से तच्चे गोतमे वायुभूती अणगारे दोच्चेणं गोयमेणं अग्गिभूतिणा अणगारेण सद्धिं जेणेव समणे
भगवं महावीरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी"६. पाठान्तर—"स्स तहा बलिस्स वि नेयव्वं; नवरं सातिरेगं केवल"।
पाठान्तर-"सेसं तं चेव णिरवसेसं णेयव्वं; णवरं णाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं सामाणिएहिं, सेवं भंते २ त्ति तच्चे गोयमे वायुभूति जाव विहरति।"