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द्वितीय शतक : उद्देशक-१०]
[२४९ [१२ उ.] गौतम! अलोकाकाश में न जीव हैं, यावत् न ही अजीवप्रदेश हैं। वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघु-गुणों से संयुक्त है; (क्योंकि लोकाकाश सर्वाकाश का अनन्तवाँ भाग है, अतः) वह अनन्तभाग कम सर्वाकाशरूप है।
विवेचन आकाशास्तिकाय :भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निरूपण प्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं उनमें जीव-अजीव आदि के अस्तित्व के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है।
देश, प्रदेश प्रस्तुत प्रसंग में देश का अर्थ है-जीव या अजीव के बुद्धिकल्पित दो, तीन आदि विभाग; तथा प्रदेश का अर्थ है—जीवदेश या अजीवदेश के बुद्धिकल्पित ऐसे सूक्ष्मतम विभाग, जिनके फिर दो विभाग न हो सकें।
जीव-अजीव के देश-प्रदेशों का पृथक् कथन क्यों?—यद्यपि जीव या अजीव कहने से ही क्रमशः जीव तथा अजीव के देश तथा प्रदेशों का ग्रहण हो जाता है, क्योंकि जीव या अजीव के देश व प्रदेश जीव या अजीव से भिन्न नहीं हैं, तथापि इन दोनों (देश और प्रदेश) का पृथक् कथन 'जीवादि पदार्थ प्रदेश-रहित हैं', इस मान्यता का निराकरण करने एवं जीवादि पदार्थ सप्रदेश हैं, इस मान्यता को सूचित करने के लिए किया गया है।
स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश, परमाणुपुद्गल-परमाणुओं का समूह 'स्कन्ध' कहलाता है। स्कन्ध के दो, तीन आदि भागों को स्कन्ध-देश कहते हैं, तथा स्कन्ध के ऐसे सूक्ष्म अंश, जिनके फिर विभाग न हो सकें, उन्हें स्कन्धप्रदेश कहते हैं, 'परमाणु' ऐसे सूक्ष्मतम अंशों को कहते हैं, जो स्कन्धभाव को प्राप्त नहीं हुए किसी से मिले हुए नहीं स्वतंत्र हैं।
__ अरूपी के दस भेद के बदले पांच भेद ही क्यों-अरूपी अजीव के अन्यत्र दस भेद (धर्म, अधर्म. आकाश. इन तीनों के देश और प्रदेश तथा अद्धासमय) कहे गए हैं, किन्तु यहाँ पाच ही भेद कहने का कारण यह है कि तीन भेद वाले आकाश को यहाँ आधाररूप माना गया है, इस कारण उसके तीन भेद यहाँ नहीं गिने गए हैं। इन तीन भेदों को निकाल देने पर शेष रहे सात भेद। उनमें भी धर्मास्तिकाय या अधर्मास्तिकाय के देश का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि सम्पूर्ण लोक की पृच्छा होने से यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध के रूप में पर्ण का ही ग्रहण किया गय इसलिए इन दो भेदों को निकाल देने पर पांच भेद ही शेष रहते हैं।
अद्धा-समय–अद्धा अर्थात् काल तद्रूप जो समय, वह अद्धा-समय है। __ अलोकाकाश में जीवादि कोई पदार्थ नहीं है किन्तु उसे अजीवद्रव्य का एक भाग-रूप कहा गया है, उसका कारण है-आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश, ये दो भाग हैं। इस दृष्टि से अलोकाकाश, आकाश (अजीवद्रव्य) का एक भाग सिद्ध हुआ। अलोकाकाश अगुरुलघु है, गुरुलघु नहीं। वह स्व-पर-पर्यायरूप अगुरुलघु स्वभाव वाले अनन्तगुणों से युक्त है। अलोकाकाश से लोकाकाश अनन्तभागरूप है। दोनों आकाशों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं होते।
लोकाकाश–जहाँ धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की वृत्ति-प्रवृत्ति हो वह क्षेत्र लोकाकाश है।
१. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक १५०-१५१