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द्वितीय शतक : उद्देशक-५]
[२१५ सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगादिएहिं देवगणेहिं निग्गंथातो पावयणातो अणतिक्कमणिज्जा, णिग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिता निव्वितिगिंच्छा लद्धट्ठा गहितट्ठा पुच्छितट्ठा अभिगतट्ठा विणिच्छियट्ठा, अट्टिमिंज-पेम्माणुरागरत्ता-'अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अढे, अयं परमठे, सेसे अणठे', ऊसिय-फलिहा अवंगुतदुवारा चियत्तंतेउरघरप्पवेसा, बहूहिं सीलव्वत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं चाउद्दसऽट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासुए उणिज्जेणं असणपाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पादपुंछणेणं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगेणं ओसह-भेसज्जेण य पडिलाभेमाणा, अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
[११] उस काल उस समय में तुंगिया (तुंगिका) नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। उस तुंगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में पुष्पवतिक नाम का चैत्य (उद्यान) था। उसका वर्णन समझ लेना चाहिए।
उस तुंगिकानगरी में बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य (विपुल धनसम्पत्ति वाले) और दीप्त (प्रसिद्ध या दृप्त स्वाभिमानी) थे। उनके विस्तीर्ण (विशाल) विपुल (अनेक) भवन थे। तथा वे शयनों (शयन सामग्री), आसनों, यानों (रथ, गाड़ी आदि), तथा वाहनों (बैल, घोड़े आदि) से सम्पन्न थे। उनके पास प्रचुर धन (रुपये आदि सिक्के), बहुत-सा सोना-चाँदी आदि था। वे आयोग (रुपया उधार देकर उसके ब्याज आदि द्वारा दुगुना तिगुना अर्थोपार्जन करने का व्यवसाय) और प्रयोग (अन्य कलाओं का व्यवसाय) करने में कुशल थे। उनके यहाँ विपुल भात-पानी (खान-पान) तैयार होता था, और वह अनेक लोगों को वितरित किया जाता था। उनके यहाँ बहुत-सी दासियाँ (नौकरानियाँ) और दास (नौकर-चाकर) थे; तथा बहुत-सी गायें, भैंसें, भेड़ें और बकरियाँ आदि थीं। वे बहुत-से मनुष्यों. द्वारा भी अपरिभूत (पराभव नहीं पाते-दबते नहीं) थे। वे जीव (चेतन) और अजीव (जड़) के स्वरूप को भलीभाँति जानते थे। उन्होंने पुण्य और पाप का तत्त्व उपलब्ध कर लिया था। वे आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे। (अर्थात् इनमें से हेय, ज्ञेय और उपादेय को सम्यक् रूप से जानते थे।) वे (किसी भी कार्य में दूसरों से) सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे। (वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग, आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थप्रवचन से अनतिक्रमणीय (विचलित नहीं किये जा सकते) थे। वे निग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे तथा विचिकित्सारहित (फलाशंकारहित) थे। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों को भलीभांति उपलब्ध कर लिया था, शास्त्रों के अर्थों को (दत्तचित्त होकर) ग्रहण कर लिया था। (शास्त्रों के अर्थों में जहाँ सन्देह था, वहाँ) पूछकर उन्होंने यथार्थ निर्णय कर लिया था। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों और उनके रहस्यों को निर्णयपूर्वक जान लिया था। उनकी हड्डियाँ और मज्जाएँ (नसें) (निर्ग्रन्थप्रवचन के प्रति) प्रेमानुराग में रंगी हुई (व्याप्त) थीं। (इसीलिए वे कहते थे कि-) आयुष्मान् बन्धुओ! यह निर्ग्रन्थ पवचन ही अर्थ (सार्थक) है, यही परमार्थ है,शेष सब अनर्थ
१. पाठान्तर-'बहूहिं सीलव्वय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणा चाउद्दसट्रमधि
पुण्णिमासिणीसु अधापरिग्गहितेणं पोसहोववासेणं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।'