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( ८ ) गर्भशास्त्र – गर्भगतजीव के आहार-विहार, नीहार, अंगोपांग, जन्म इत्यादि वर्णन ।
(९) चरित्रखण्ड — श्रमण भगवान् महावीर के सम्पर्क में आने वाले अनेक तापसों, परिव्राजकों, श्रावकश्राविकाओं, श्रमणों, निर्ग्रन्थों, अन्यतीर्थिकों, पाश्र्वापत्यश्रमणों आदि के पूर्व जीवन एवं परिवर्तनोत्तरजीवन का वर्णन । (१०) विविध - कुतूहलजनक प्रश्न, राजगृह के गर्म पानी के स्रोत, अश्वध्वनि, देवों की ऊर्ध्व-अधोगमन शक्ति, विविध वैक्रिय शक्ति के रूप, आशीविष, स्वप्न, मेघ, वृष्टि आदि के वर्णन ।
इस प्रकार इस अंग में सभी प्रकार का ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है। इसी कारण इसे ज्ञान का महासागर कहा जा
सकता है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन " शतक" के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह शत ( सयं) का ही रूप है। प्रस्तुत आगम के उपसंहार में "इक्कचत्तालीसइमं रासी जुम्मसयं समत्तं" ऐसा समाप्तिसूचक पद उपलब्ध होता है। इसमें यह बताया गया है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में १०१ शतक थे; किन्तु इस समय केवल ४१ शतक ही उपलब्ध होते हैं। इस समाप्तिसूचक पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि 'सव्वाए भगवईए अट्ठतीसं सयं सयाणं' अर्थात् – अवान्तरशतकों की संख्या सब शतकों को मिलाकर कर १३८ होती है, उद्देशक १९२५ होते हैं। ये अवान्तरशतक १३८ इस प्रकार हैं - प्रथम | शतक में बत्तीसवें शतक तक और इकतालीसवें शतक में कोई अवान्तरशतक नहीं है । ३३ वें शतक से ३९ वें शतक जो ७ शतक हैं, इनमें १२-१२ अवान्तर शतक हैं । ४० वें शतक में २१ अवान्तर शतक हैं। अतः इन ८ शतकों की परिगणना १०५ अवान्तरशतकों के रूप में की गई है। इस तरह अवान्तरशतक रहित ३३ शतकों और अवान्तरशतक सहित १०५ शतकों को मिलाकर कुल १३८ शतक होते हैं। शतक में उद्देशक रूप उपविभाग हैं। उद्देशकों की जो १९२५ संख्या बताई | गई है, गवेषणा करने पर भी उसका आधार प्राप्त नहीं होता। कुछ शप्तकों में दस-दस उद्देशक हैं; कुछ में इससे भी अधिक है। इकतालीसवें शतक में १९६ उद्देशक हैं। नौवें शतक में ३४ उद्देशक हैं। शतक शब्द से सौ की संख्या का कोई सम्बन्ध नहीं है, यह अध्ययन के अर्थ में रूढ़ 1
४१ शतकों में विभक्त विशालकाय भगवतीसूत्र में श्रमण भगवान् महावीर के स्वयं के जीवन की, गणधर | गौतम आदि उनके शिष्यवर्ग की तथा भक्तों, गृहस्थों, उपासक उपासिकाओं, अन्थतीर्थिकों और उनकी मान्यताओं की | विस्तृत जानकारी मिलती है। आजीवक संघ के आचार्य गोशालक के सम्बन्ध में इसमें विस्तृत और प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है । यत्र-तत्र पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ के अनुगामी साधु- श्रावकों का तथा उनके चातुर्याम धर्म का एवं चातुर्याम धर्म के बदले पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार करने का विशद उल्लेख भी प्रस्तुत आगम में मिलता है। इसमें | सम्राट् कूणिक और गणतंत्राधिनायक महाराज चेटक के बीच जो महाशिलाकण्टक और रथमूशल महासंग्राम हुए तथा | इन दोनों महायुद्धों में जो करोड़ों का नरसंहार हुआ, उसका विस्तृत मार्मिक एवं चौंका देने वाला वर्णन भी अंकित है। ऐतिहासिक दृष्टि से आजीवक संघ के आचार्य मंखली गोशाल, जमालि, शिवराजर्षि, स्कन्दक परिव्राजक,
| तामली तापस आदि का वर्णन अत्यन्त रोचक है । तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती श्राविका, मदुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्श्व के शिष्य कालास्यवेशीपुत्र, तुंगिका नगरी के श्रावक आदि प्रकरण बहुत ही | मननीय हैं। इक्कीस से लेकर तेईसवें शतक तक वनस्पतियों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह अद्भुत है । | पंचास्तिकाय के प्रतिपादन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय, ये तीनों अमूर्त होने से सदृश्य हैं, | वर्त्तमान वैज्ञानिकों ने धर्मास्तिकाय को 'ईथर' तत्त्व के रूप में तथा आकाश को 'स्पेस' के रूप में स्वीकार कर लिया है। | जीवास्तिकाय भी अमूर्त होने से अदृश्य है तथापि शरीर के माध्यम से होने वाली चैतन्यक्रिया के द्वारा वह दृश्य है।
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