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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-८] [१४१ जाव उदिण्णाई, कम्माइं नो उवसंताई भवंति से णं पुरिसे परायिजति। से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सवीरिए पराजिणइ, अवीरिए पराइज्जति! [९ प्र.] भगवन् ! एक सरीखे, एक सरीखी चमड़ी वाले, समानवयस्क, समान द्रव्य और उपकरण (शस्त्रादि साधन) वाले कोई दो पुरुष परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करें, तो उनमें से एक पुरुष जीतता है और एक पुरुष हारता है; भगवन्! ऐसा क्यों होता है ? [९.उ.] हे गौतम! जो पुरुष सवीर्य (वीर्यवान्-शक्तिशाली) होता है, वह जीतता है और जो वीर्यहीन होता है, वह हारता है। [प्र.] भगवन्! इसका क्या कारण है यावत्-वीर्यहीन हारता है ? [उ.] गौतम! जिसने वीर्य-विघातक कर्म नहीं बाँधे हैं, नहीं स्पर्श किये हैं यावत् प्राप्त नहीं किये हैं, और उसके वे कर्म उदय में नहीं आए हैं परन्तु उपशान्त हैं, वह पुरुष जीतता है। जिसने वीर्य विघातक कर्म बांधे हैं, स्पर्श किये हैं, यावत् उसके वे कर्म उदय में आए हैं, परन्तु उपशान्त नहीं हैं, वह पुरुष पराजित होता है। अतएव हे गौतम! इस कारण ऐसा कहा जाता है कि सवीर्य पुरुष विजयी होता . है और वीर्यहीन पुरुष पराजित होता है। - विवेचन-दो पुरुषों की अनेक बातों में सदृशता होते हुए भी जय-पराजय का कारण प्रस्तुत सूत्र में दो पुरुषों की शरीर, वय, चमड़ी तथा शस्त्रादि साधनों में सदृशता होते हुए भी एक की जय और दूसरे की पराजय होने का कारण बताया गया है। वीर्यवान् और निर्वीर्य-वस्तुतः वीर्य से यहाँ तात्पर्य है-आत्मिक शक्ति, मनोबल, उत्साह, साहस और प्रचण्ड पराक्रम इत्यादि। जिसमें इस प्रकार का प्रचण्ड वीर्य हो, जो वीर्य-विघातककर्मरहित हो, वह शरीर से दुर्बल होते हुए भी युद्ध में जीत जाता है, इसके विपरीत भीमकाय एवं परिपुष्ट शरीर वाला होते हुए भी जो निर्वीर्य हो, वीर्यविघातककर्मयुक्त हो, वह हार जाता है। जीव एवं चौबीस दण्डकों में सवीर्यत्व-अवीर्यत्व की प्ररूपणा १०. जीवा णं भंते ! किं सवीरिया ? अवीरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, अवीरिया वि। से केणटेणं ? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता; तं जहा—संसारसमावनगा य, असंसारसमावन्नगा य। तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जे ते संसारसमावनगा ते दुविहा पन्नत्ता; तं जहा सेलेसिपडिवनगा य, असेलेसिपडिवनगा य। तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवनगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि अवीरिया वि। से तेणटुंणं गोयमा ! एवं वुच्चति जीवा दुविहा पण्णत्ता; तं जहा-सवीरिया वि अवीरिया वि। [१०-१ प्र.] भगवन्! क्या जीव सवीर्य हैं अथवा अवीर्य हैं ? १. भवगतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक ९४
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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