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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६] [१२१ [३] जहा से बादरे आउकाए अन्नमन्नसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिट्ठति तहा णं से वि? नो इणढे समढे, से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ! ०। ॥छट्ठो उद्देसो समत्तो॥ [२७-३ प्र.] भगवन्! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल अप्काय की भाँति परस्पर समायुक्त होकर बहुत दीघकाल तक रहता है ? [२७-३ उ.] हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि वह (सूक्ष्म स्नेहकाय) शीघ्र ही विध्वस्त हो जाता है। 'हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह उसी प्रकार है,' यों कहकर गौतमस्वामी तपसंयम द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन—सूक्ष्मस्नेहकायपात के सम्बन्ध में प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र (२७-१/२/३) में सूक्ष्म स्नेह (अप्) काय के गिरने के सम्बन्ध में तीन प्रश्नोत्तर अंकित हैं। "सया समियं' का दूसरा अर्थ इन पदों का एक अर्थ तो ऊपर दिया गया है। दूसरा अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है सदा अर्थात् सभी ऋतुओं में, समित–अर्थात् रात्रि तथा दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में। काल की विशेषता से वह स्नेहकाय कभी थोड़ा और कभी अपेक्षाकृत अधिक होता है। ॥प्रथम शतक : छठा उद्देशक समाप्त॥ - भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ८३
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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