SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६] [११३ १०. एगिंदिया जहा जीवा (सु. ७) तहा भाणियव्वा। [१०] एकेन्द्रियों के विषय में औधिक (सामान्य) जीवों की भांति कहना चाहिए। ११. जहा पाणादिवाते (सु. ७-१०) तहा मुसावादे तहा अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले एवं एते अट्ठारस, चउवीसं दंडगा भाणियव्वा। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोतमे समणं भगवं जाव विहरति। [११] प्राणातिपात (क्रिया) के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक इन अठारह ही पापस्थानों के विषय में चौबीस दण्डक कहने चाहिए। "हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है' यों कहकर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके यावत् विचरते हैं। विवेचन–चौबीस दण्डकों में अष्टादशपापस्थान क्रिया-स्पर्शप्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों में सामान्य जीवों, नैरयिकों तथा शेष सभी दण्डकों में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक की क्रिया के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से प्रश्नोत्तरों का निरूपण है। प्राणातिपातादि क्रिया के सम्बन्ध में निष्कर्ष (१) जीव प्राणातिपातादि की क्रिया स्वयं करते हैं, वे बिना किये नहीं होती। (२) ये क्रियाएँ मन, वचन या काया से स्पष्ट होती हैं। (३) ये क्रियाएँ करने से लगती हैं, बिना किये नहीं लगती। फिर भले ही वह क्रिया मिथ्यात्वादि किसी कारण से की जाएँ, (४) क्रियाएँ स्वयं करने से लगती हैं, दूसरे के (ईश्वर, काल आदि के) करने से नहीं लगतीं, (५) ये क्रियाएँ अनुक्रमपूर्वक कृत होती हैं। कुछ शब्दों की व्याख्या-मोहनीयकर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे अरति और विषयानुराग को रति कहते हैं। लड़ाई-झगड़ा करना कलह है, असद्भूत दोषों को प्रकट रूप से जाहिर करना 'अभ्याख्यान' और गुप्तरूप से जाहिर करना या पीठ पीछे दोष प्रकट करना पैशून्य है। दूसरे की निन्दा करना पर-परिवाद है, मायापूर्वक झूठ बोलना मायामृषावाद है, श्रद्धा का विपरीत होना मिथ्यादर्शन है, वही शल्यरूप होने से मिथ्यादर्शनशल्य है। रोह अनगार का वर्णन १२. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी रोहे नामं अणगारे पगतिभद्दए पगतिमउए पगतिविणीते पगति उवसंते पगति पतणुकोह-माण-मायलोभे मिदुमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। तए णं से रोहे नाम अणगारे जातसड्ढे जाव' पज्जुवासमाणे एवं वदासी [१२] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी (शिष्य) रोह नामक अनगार थे। वे प्रकृति से भद्र, प्रकृति से मृदु (कोमल) प्रकृति से विनीत, प्रकृति से उपशान्त, १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ८० 'जाव' पद से प्रथम उद्देश के उपोद्घात में वर्णित श्री गौतमवर्णन में प्रयुक्त 'जायसंसए जायकोउहले' इत्यादि समस्त विशेषणरूप पद यहां समझ लेने चाहिए। २.
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy