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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५] [१०७ शरीरसंघातरूप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ दोनों प्रकार के पुद्गल परिणमते हैं। इनमें भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रियशरीर भेद नहीं होते। क्रमशः चार लेश्याएँ होती हैं। ये हुण्डक संस्थानी, एकान्त मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी (मतिश्रुताज्ञान), केवल काययोगी होते हैं। इसी तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दश ही द्वार समझने चाहिए। तेजस्काय और वायुकाय में देव उत्पन्न नहीं होते, इसलिए तेजोलेश्या और तत्सम्बन्धी ८० भंग नहीं होते। वायुकाय के ४ शरीर (आहारक को छोड़कर) होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर-चूंकि विकलेन्द्रिय जीव अल्प होते हैं, इसलिए उनमें एक-एक जीव भी कदाचित् क्रोधादि-उपयुक्त हो सकता है, विकलेन्द्रियों में मिश्रदृष्टि नहीं होती, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान (अपर्याप्त दशा में) होने से इनमें भी ८० भंग होते हैं। नारकों में जिनजिन स्थानों में २७ भंग बतलाए गए हैं, उन-उन स्थानों में विकलेन्द्रिय में अभंगक (भंगों का अभाव) कहना चाहिए। इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। ये (विकलेन्द्रिय) सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा ज्ञानी और अज्ञानी तथा काययोगी और वचनयोगी होते हैं। तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों और नारकों में अन्तर-नारकों में जहाँ २७ भंग कहे गए हैं, वहाँ इनमें अभंगक कहना चाहिए; क्योंकि क्रोधादि-उपयुक्त पंचेन्द्रियतिर्यंच एक साथ बहुत पाए जाते हैं, नारकों में जहाँ ८० भंग कहे गए हैं. वहाँ इनमें भी ८० भंग होते हैं। इनमें आहारक को शरीर, वज्रऋषभनाराचादि छह संहनन तथा ६ संस्थान एवं कृष्णादि छहों लेश्याएँ होती हैं। __ मनुष्यों और नारकों के कथन में अन्तर-जिन द्वारों में नारकों के ८० भंग कहे हैं, उनमें मनुष्यों के भी ८० भंग होते हैं। एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्यात समय अधिक तक की जघन्य स्थिति में,जघन्य तथा एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना से लेकर संख्यातप्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना में, और मिश्रदृष्टि में भी नारकों के समान ८० भंग ही होते हैं। जहाँ नारकों के २७ भंग कहे हैं, वहाँ मनुष्यों में अभंगक हैं, क्योंकि मनुष्य सभी कषायों से उपयुक्त बहुत पाए जाते हैं। मनुष्यों में शरीर पांच, संहनन छह, संस्थान छह, लेश्याएँ छह, दृष्टि तीन, ज्ञान पांच, अज्ञान तीन आदि होते हैं। आहारक शरीर वाले मनुष्य अत्यल्प होने से ८० भंग होते हैं। केवलज्ञान में कषाय नहीं होता। चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर- भवनपति देवों की तरह शेष तीन देवों का वर्णन समझना। ज्योतिष्क और वैमानिकों में कुछ अन्तर है। ज्योतिष्कों में केवल एक तेजोलेश्या होती है, जबकि वैमानिकों में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभलेश्याएँ पाई जाती हैं। वैमानिकों में नियमतः तीन ज्ञान, तीन अज्ञान पाए जाते हैं। असंज्ञी जीव ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है। कर चार ॥प्रथम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त। भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक ७३ से ७७ तक
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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