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प्रथम शतक : उद्देशक-५]
जेहिं ठाणेहिं रतियाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं ।
[३३] जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं। विशेषता यह है कि सम्यक्त्व (सम्यग्दृष्टि), आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान – इन तीनों स्थानों में भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, इतनी बात नारक जीवों से अधिक है। तथा जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक है, अर्थात् – कोई विकल्प नहीं होते ।
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तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि कथनपूर्वक दस द्वार निरूपण
३४. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा भाणियव्वा, नवरं जेहिं सत्तावीसं भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं । जत्थ असीति तत्थ असीतिं चेव ।
[३४] जैसा नैरयिकों के विषय में कहा, वैसा ही पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के विषय में कहना चाहिए । विशेषता यह है कि जिन-जिन स्थानों में नारक - जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उनउन स्थानों में यहां अभंगक कहना चाहिए, और जिन स्थानों में नारकों के अस्सी भंग कहे हैं, उन स्थानों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए ।
मनुष्यों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक दस द्वार
३५. मणुस्सा वि । जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीति भंगा तेहिं ठाणेहिं मणुस्साण वि असीतिं भंगा भाणियव्वा । जेसु ठाणेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं, नवरं मणुस्साणं अब्भहियंजहन्नियाए ठिईए आहारए य असीतिं भंगा।
[३५] नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे गये हैं, उन-उन स्थानों में मनुष्यों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए। नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं उनमें मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि मनुष्यों के जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, और यही नैरयिकों की अपेक्षा मनुष्यों में अधिक है।
वाणव्यन्तरों आदि के क्रोधोपयुक्तपूर्वक दस द्वार
३६. वाणमंतर - जोदिस-वेमाणिया जहा भवणवासी (सु. २९) नवरं णाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स; जाव' अणुत्तरा ।
सेवं भंते! सेवं भंते! ति० ।
॥ पंचमो उद्देसो समत्तो ॥
[३६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन भवनपति देवों के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि जो जिसका नानात्व-भिन्नत्व है, वह जान लेना चाहिए, यावत् अनुत्तरविमान तक कहना
चाहिए ।
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'भगवन्! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है;' ऐसा कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं ।
१. 'जाव' पद से 'सोहम्म-ईसाण' से लेकर 'अणुत्तरा' (अनुत्तरदेवलोक के देव) तक के नामों की योजना कर लेनी चाहिए ।