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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१८ प्र.] भगवन्! वह उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अर्हन्त, जिन और केवली 'अलमस्तु' अर्थात् - पूर्ण है, ऐसा कहा जा सकता है ?
[१८ उ.] हाँ, गौतम! वह उत्पन्न ज्ञानदर्शनधारी, अर्हन्त, जिन और केवली पूर्ण (अलमस्तु) है, ऐसा कहा जा सकता है।
(गौ.) 'हे भगवन्! यह ऐसा ही है, भगवन्! ऐसा ही है।'
विवेचन-छद्मस्थ, केवली आदि की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सात सूत्रों (१२ से १८) तक में छद्मस्थ द्विविध अवधिज्ञानी और केवली, चरम शरीरी आदि के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाणप्राप्त, सर्वदुःखान्तकर होने के विषय में त्रिकाल-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर अंकित हैं ।
छद्मस्थ-छद्म का अर्थ है-ढका हुआ। जिसका ज्ञान किसी आवरण से आच्छादित हो रहा है-दब रहा है, वह छद्मस्थ कहलाता है। यद्यपि अवधिज्ञानी का ज्ञान भी आवरण से ढका होता है, तथापि आगे इसके लिए पृथक् सूत्र होने से यहाँ छद्मस्थ शब्द से अवधिज्ञानी को छोड़कर सामान्य ज्ञानी ग्रहण करना चाहिए।
निष्कर्ष-मनुष्य चाहे कितना ही उच्च संयमी हो, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान पर पहुँचा हुआ हो, किन्तु जब तक केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त न हो, तब तक वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकता, न हुआ है, न होगा। अवधिज्ञानी, जो लोकाकाश के सिवाय अलोक के एक प्रदेश को भी जान लेता हो, वह उसी भव में मोक्ष जाता है, किन्तु जाता है केवली होकर ही।
आधोऽवधि एवं परमावधिज्ञान-परिमित क्षेत्र-काल-सम्बन्धी अवधिज्ञान आधोऽवधि कहलाता है, उससे बहुतर क्षेत्र को जानने वाला परम-उत्कृष्ट अवधिज्ञान, जो समस्त रूपी द्रव्यों को जान लेता हो, परमावधिज्ञान कहलाता है।
॥प्रथम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति. पत्रांक ६७