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________________ प्रथम शतक : उद्देशक - ४] [ ८७ आभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ- स्वेच्छापूर्वक, ज्ञानपूर्वक, कर्मफल भोगना है । दीक्षा लेकर ब्रह्मचर्य का पालन करना, भूमिशयन करना, केशलोच करना, बाईस परिषह सहना तथा विविध प्रकार का तप करना इत्यादि वेदना जो ज्ञानपूर्वक स्वीकार की जाती है, वह आभ्युपगमिकी वेदना कहलाती है। औपक्रमिकी वेदना का अर्थ है- जो कर्म अपना अबाधाकाल पूर्ण होने पर स्वयं ही उदय में आए हैं, अथवा उदीरणा द्वारा उदय में लाए गए हैं, उन कर्मों का फल अज्ञानपूर्वक या अनिच्छा से भोगा । यथाकर्म, यथानिकरण का अर्थ-यथाकर्म यानी जो कर्म जिस रूप में बांधा है, उसी रूप से, और यथानिकरण यानी विपरिणाम के कारणभूत देश, काल आदि कारणों की मर्यादा का उल्लंघन न करके । पापकर्म का आशय - प्रस्तुत में पापकर्म का आशय है- सभी प्रकार के कर्म । यों तो पापकर्म का अर्थ शुभकर्म होता हैं, इस दृष्टि से जो मुक्ति में व्याघात रूप हैं, वे समस्त कर्ममात्र ही अशुभ हैं, दुष्ट हैं, पाप हैं। क्योंकि कर्ममात्र को भोगे बिना छुटकारा नहीं है । पुद्गल स्कन्ध और जीव के सम्बन्ध में त्रिकाल शाश्वत प्ररूपणा ७. एस णं भंते! पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं 'भुवि' इति वत्तव्वं सिया ? हंता, गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं 'भुवि' इति वत्तव्वं सिया । [७. प्र.] भगवन्! क्या यह पुद्गल परमाणु अतीत, अनन्त (परिमाणरहित), शाश्वत ( सदा रहने वाला) काल में था - ऐसा कहा जा सकता है ? [७. उ.] हाँ, गौतम ! यह पुद्गल अतीत, अनन्त, शाश्वतकाल में था, ऐसा कहा जा सकता है। ८. एस णं भंते! पोग्गले पडुप्पन्नं सासयं समयं ' भवति' इति वत्तव्वं सिया ? हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेतव्वं । [८. प्र.] भगवन्! क्या यह पुद्गल वर्तमान शाश्वत सदा रहने वाले काल में है, ऐसा कहा जा सकता है ? [८. उ. ] हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है। ( पहले उत्तर के समान उच्चारण करना चाहिए।) ९. एस णं भंते! पोग्गले अणागतमणंतं सासतं समयं 'भविस्सति' इति वत्तव्वं सिया ? हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेतव्वं । [९. प्र.] हे भगवन् ! क्या यह पुद्गल अनन्त और शाश्वत भविष्यकाल में रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है ? [९. उ. ] हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है। (उसी पहले उत्तर समान उच्चारण करना चाहिए)। १०. एवं खंधेण वि तिण्णि आलावगा । [१०] इसी प्रकार के 'स्कन्ध' के साथ भी तीन (त्रिकाल सम्बन्धी) आलापक कहने चाहिए। ११. एवं जीवेण वि तिण्णि आलावगा भाणितव्वा । १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति. पत्रांक ६५
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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